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________________ प्रवचन-सारोद्धार २६७ • उत्पादनादोष-आहार लेते समय साधु की ओर से लगने वाले दोष। यह मूलत: शुद्ध पिण्ड को अशुद्ध करता है। • एषणा दोष- आहार ग्रहण करते समय शंका आदि दोषों के द्वारा उसका शोधन करना । ५६३ ॥ उद्गम दोष : १६ १. आधाकर्म - आधा = साधु के निमित्त संकल्प करना कि अमुक साधु के लिये मुझे आहार बनाना चाहिये। कर्म = पाकादि क्रिया करना। उपचार से आहार-पानी भी 'आधाकर्म' कहलाता है। दोषों के प्रसंग में दोषवान् की चर्चा दोष व दोषवान के अभेद की सचक है। अथवा साध के निमित्त आहार-पानी आदि बनाना । सचित्त को अचित्त करना । अचित्त को पकाना आदि आधाकर्म है। २. औद्देशिक अपने व सभी याचकों के लिए एक साथ भोजन बनाना या अपने लिये बनाये गये आहारादि को साध के लिए विशेष रूप से संस्कारित करना। जैसे अपने लिये भात आदि बनाये हों उनमें से कुछ भात आदि साधु के लिए अलग से बघार कर रखना। औद्देशिक के दो प्रकार हैं-(i) ओघत: (ii) विभागतः । (i) ओघत: यदि यहाँ कुछ भी नहीं दूंगा तो भवान्तर में मुझे कुछ भी नहीं मिलेगा, ऐसा सोचकर भिक्षा देने के लिये अपने लिये बनायी जाने वाली वस्त में वद्धि करना। दर्भिक्ष में भख सहन करने वाला व्यक्ति सुभिक्ष हो जाने पर विचार करे कि मेरा जीवन बड़ी कठिनाई से बचा है। मेरे पास जीविका का साधन है, यद्यपि मैं सभी अतिथियों की पूर्ति कर सकूँ, इतनी मेरी शक्ति | तो दे ही सकता हूँ। इस जीवन में दान, पुण्य किये बिना परलोक में स्वर्ग आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रकृति का नियम है कि दिये बिना नहीं मिलता। अत: दानादि पुण्य करना चाहिये। ऐसा सोचकर अपने लिये बनाये जाने वाला आहार अधिक मात्रा में बनाना (भोजन का इतना भाग मेरे लिये है और इतना देने के लिए है ऐसा विभाग किये बिना)। यह ओघत: औद्देशिक है। (ii) विभागत: - विवाह बीतने के बाद शेष बचे हुए पदार्थों में से कुछ हिस्सा नहीं है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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