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________________ १४० धान्य सतरह प्रकार का है १. बीही, २. जौ, ३. मसूर, ४. गेहूँ, ५. मूँग, ६. उड़द, ७ तिल, ८. चना, ९. सरसों, १०. कोद्रव, ११. शालि, १२. अणव, १३. नीवार, १४. शमी, १५. मटर, १६. कुलत्थ, १७. सण | धन-धान्यादि का परिमाण कर लेने के पश्चात् अतिरिक्त कहीं से मिलता हो तो नियम भंग होने के भय से पहले का बेचकर अथवा नियम की अवधि पूर्ण होने के पश्चात् ही धन-धान्यादि घर लाना, पर वचनबद्ध कर, अलग बंधवाकर या सौदा पक्का कर स्वीकार कर लेना अतिचार है। अर्थात् पूर्व या पश्चात् प्राप्त होने वाले धान्य को यदि अपने घर में रखूंगा तो नियम का भंग होगा, ऐसा विचार करके स्वगृह में स्थापित करके अग्रिम रूप से उनके विक्रय का वचन से सौदा कर देना, किसी अन्य के यहां रखवा देना (मूढकादिबन्धरूपेण) अर्थात् किसी के पास अमानत के रूप में रख देना, जब जरूरत होगी तब ले लूंगा, यह कहकर स्थापित कर देना अथवा किसी को उसके भावी भुगतान जैसे नौकर को वर्ष की तनख्वाह के रूप में अतिरिक्त अनाज अग्रिम दे देना । इन सब प्रवृत्तियों से धन-धान्य के प्रमाण का अतिक्रमण होता है । (iv) द्विपद-चतुष्पद (v) कुप्य-संख्या द्वार ६ Jain Education International - जिनके दो पाँव हैं-पत्नी, दासी, दास, नौकर, पदाति, हंस, मयूर, मुर्गा, तोता, मैना, चकोर, कबूतर आदि। जिनके चार पाँव हैं वे चतुष्पद - गाय, भैंस, बकरा-बकरी, ऊँट, हाथी, गधा, घोड़ा आदि । किसी ने द्विपद- चतुष्पद आदि की संख्या का परिमाण करके एक वर्ष का नियम ले लिया कि “मैं द्विपद, चतुष्पद इतनी संख्या में, रखूँगा।” नियम की अवधि में किसी के भी प्रसूति न हो, अन्यथा संख्या वृद्धि होने से मेरा नियम भंग होगा, इस बात को ध्यान में रखते हुए पशुओं को गर्भधारण करने की सुविधा इस प्रकार देना कि नियम पूर्ण होने के बाद ही प्रसव हो । नियम की अवधि में गर्भस्थ जीव की तो वृद्धि हुई परन्तु बाह्य संख्या वही रही। इस प्रकार भंगाभंग रूप होने से यह अतिचार है। काँसी, ताँबा, लोहा, जस्ता, सीसा, चटाई, मंच-मचली, झेरना, रथ, गाड़ी, हल, मिट्टी आदि के बर्तन, खाट, बिस्तर आदि घरेलू सामान का परिमाण करके बाद में सस्ते के स्थान पर महँगा खरीदना । यदि कोई वस्तु थाली आदि संख्या में अधिक हो जाये तो उसे गलाकर दो थाली की एक थाली बना लेना । इस प्रकार व्रत का परिमाण बराबर रखते हुए वस्तुओं का पर्यायान्तर करते रहना अतिचार है । पर्यायान्तर करने से 'व्रतभंग' हुआ । परिमाण बराबर रखने से व्रत अभंग रहा ।। २७८-२७९ । 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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