SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा होगा। जो लोकवादी होगा वही कर्मवादी होगा अर्थात् कर्मसिद्धान्त को मानेगा और जो कर्मवादी होगा वही क्रियावादी होगा अर्थात् आत्मा को कर्ता-भोक्ता मानेगा। वस्तुतः आत्मतत्त्व वह केन्द्र बिन्दु है, जिसके बिना शुभाशुभ का विवेक और धर्मसाधना सम्भव नहीं है। नैतिकता और धर्मसाधना दोनों ही आत्मसापेक्ष हैं; क्योंकि इच्छाओं एवं वासनाओं और विवेक के मध्य संघर्ष का द्रष्टा और चयनकर्ता कोई सचेतन आत्मतत्त्व ही हो सकता है। मात्र यही नहीं, ज्ञान और विज्ञान, धर्म और दर्शन सभी आत्माश्रित ही हैं, बिना आत्मा को स्वीकार किये इनका अस्तित्व ही नहीं रहता। ज्ञान और विज्ञान का समग्र विकास आत्मतत्त्व अर्थात् किसी चेतन तत्त्व के आधार पर ही होता है। विश्व व्यवस्था में से यदि चेतना और जीवन को अलग कर दिया जाय तो विश्व का कोई अर्थ ही नहीं रहता। इस प्रश्न पर चाहे विवाद हो सकता है कि आत्मा नित्य है या नहीं? किन्तु आत्मा या चेतन सत्ता को नकारने पर समस्त ज्ञान और विज्ञान भी अपना अस्तित्व खो देंगे। चाहे विविध दर्शनों में आत्मस्वरूप एवं आत्मा के लक्षणों को लेकर मतभेद रहा हो, किन्तु किसी ने भी उसके अस्तित्व को नहीं नकारा है। अनात्मवादी दर्शनों में जो आत्मा का निषेध किया गया है, वह भी केवल इस अपेक्षा से है कि आत्मा नित्य या स्वतन्त्र तत्त्व है या नहीं? भारतीय दर्शनों में चाहे चार्वाक ने नित्य आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया हो, किन्तु उसने भी आत्मा को पूर्णतः नहीं नकारा है। भौतिक तत्त्वों से उसकी उत्पत्ति बता कर उसकी सत्ता को तो उसने अवश्य स्वीकार किया है। इसी प्रकार अनात्मवादी बौद्धदर्शन में कूटस्थ नित्य आत्मा का चाहे निषेध किया हो, किन्तु परिवर्तनशील चित्त की सत्ता को तो बौद्धाचार्यों ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने इस चैतसिक तत्त्व को आलयविज्ञान, निवृतचित्त, परावर्तविज्ञान, अनानवधातु (आवरण रहित) अतर्कगम्य, कुशल, ध्रुव, आनन्दमय विमुक्तिकाय और धर्मकाय कहा है। आधुनिक विज्ञान भी चाहे नित्य और स्वतन्त्र आत्मतत्त्व को स्वीकार न करता हो; वह भी विश्व में जीवन और चेतन सत्ता के अस्तित्व को नहीं नकारता है। क्योंकि चेतन आत्मसत्ता को नकारने पर तो समस्त ज्ञान, विज्ञान, धर्म और दर्शन अपना आधार ही खो देंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy