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________________ ४१४ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा प्राप्त करता है और कैसे आत्मा परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेती प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का पँचम अध्याय मुख्य रूप से परमात्मा के स्वरूप की चर्चा करता है। सामान्यतः जैनदर्शन को नास्तिक और ईश्वर को नहीं माननेवाला दर्शन कहा जाता है। किन्तु इस रूप में उसका मुल्यांकन सम्यक् नहीं है। चाहे वह ईश्वर या परमात्मा को सृष्टि का कर्ता, सृष्टि का नियामक, सृष्टि का संरक्षक तथा सृष्टि का संहर्ता नहीं मानता हो; किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वह परमात्मा की अवधारणा को अस्वीकार करता है। न केवल जैनदर्शन अपितु जिन्हें आस्तिक दर्शन कहा जाता है, उनमें भी सांख्य, मीमांसक और किसी सीमा तक अद्वैत वेदान्त ऐसे दर्शन हैं, जो परमात्मा को सृष्टिकर्ता नहीं मानते। अतः जैनदर्शन परमात्मा को चाहे सृष्टिकर्ता न मानता हो, किन्तु इस आधार पर उसे अनिश्वरवादी या नास्तिक नहीं कहा जा सकता है। जैनदर्शन में परमात्मा के अरिहन्त और सिद्ध ऐसे दो स्वरूप स्वीकार किये गए हैं और उनके स्वरूप का विस्तृत विवेचन जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। हमने प्रस्तुत अध्याय में विभिन्न जैनाचार्यों की दृष्टि में अरिहन्त और सिद्धों का क्या स्वरूप है, इसकी विस्तृत विवेचना की है। संक्षेप में चार घातीकों को नष्ट करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य को उपलब्ध सशरीर संसार में रहनेवाले परमात्मा को अरिहन्त परमात्मा के रूप में जाना जाता है। जब अरिहन्त परमात्मा इस देह का त्याग करके और अष्टकों को क्षय करके सिद्धालय को प्राप्त हो जाते हैं, तो वे सिद्ध परमात्मा कहे जाते हैं। प्रस्तुत अध्याय में हमने अरिहन्त और सिद्ध के स्वरूप की चर्चा करते हुए यह भी बताया है कि अरिहन्त परमात्मा को जैन धर्म में तीर्थंकर के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। तीर्थकर का स्वरूप क्या है और उनके अतिशय अर्थात् विशिष्टताएँ क्या होती हैं, इस चर्चा के प्रसंग में हमने तीर्थकरपद को प्राप्त करने वाली षोड़श विध अथवा बीस विध साधनाविधि को भी प्रस्तुत किया है। साथ ही तीर्थंकरों के अष्टप्रतिहायों, ४ मुख्य अतिशयों, ३४ सामान्य अतिशयों और ३५ वचनातिशयों आदि की भी चर्चा की है। इसी प्रसंग में हमने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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