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________________ त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ ३६१ का प्रकटन भी होता है। आत्मा पूर्वबद्ध कर्मों की समयावधि एवं तीव्रता को कम करने हेतु उन कर्मवर्गणाओं को ऐसे क्रम में योजित करता है, जिससे उनकी शक्ति शीघ्रता से क्षीण हो सके। वह अशुभ फल पेरोनाली उन कर्मप्रकृतयों को शुभफल देनेवाली कर्मप्रकृतियों में परिवर्तित कर देता है। उनका केवल अल्पकालीन बन्ध करती है। जैनदर्शन के अनुसार वह प्रक्रिया इस प्रकार है : १. स्थितिघात; २. रसघात; ३. गुणश्रेणी; ४. गुण संक्रमण; और ५. अपूर्व स्थिति बन्ध। आत्मा इन प्रक्रियाओं द्वारा पूर्वबद्ध कर्मदलिकों का तीव्र वेग से क्षय या उपशम करने लगता है। यह प्रक्रिया अपूर्व होने से इस गुणस्थान को अपूर्वकरण गुणस्थान भी कहा जाता है। इस गुणस्थान की आत्मा उत्तम अन्तरात्मा के समकक्ष है। ६. अनिवृत्तिकरण (बादर सम्पराय) गुणस्थान इस गुणस्थान में संज्ज्वलन कषाय का उदय रहता है। इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी आदि तीन कषायचतुष्कों की पूर्णतः निवृत्ति नहीं होती है। इसी कारण इसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं। यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास का एक अग्रिम चरण है; क्योंकि पूर्ववर्ती गुणस्थानों की अपेक्षा उत्तरवर्ती गुणस्थानों में कषाय का उदय अल्प हो जाता है। जैसे-जैसे कषाय का उदय अल्प होता है, वैसे-वैसे परिणामों की विशुद्धि अधिक होती है। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होनेवाले परिणामों के द्वारा आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा गुण संक्रमण, स्थितिघात और रस (अनुभाग) घात होता जाता है। अनिवृत्तिकरण में उत्तरोत्तर स्थितिबन्ध कम होता है। इसके अन्तिम समय में पहुँचने पर कर्मों की जघन्य स्थिति ही शेष रहती है और कर्मप्रदेशों की प्रति समय निर्जरा असंख्यातगुना अधिक होती जाती है। काल की अपेक्षा से अनिवृत्तिकरण गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। इस गुणस्थान में एक ही काल में आरूढ़ सभी जीवों के परिणाम (आत्मपरिणाम) समान ही होते हैं। नौवें गुणस्थान के जीव दो प्रकार से आरोहण करते हैं - उपशम श्रेणी से और क्षपक श्रेणी से। जब साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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