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त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ
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अर्द्धशुद्ध और अशुद्ध।
१. शुद्ध पुंज सम्यक्त्व का घात नहीं करता है। २. अर्द्धशुद्ध पुंज में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनों परिणामों
का मिश्रण होता है। ३. अशुद्धपुंज में सम्यक्त्व का घात करने की शक्ति निहित होती है।
जिसने एक बार औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है, उसे मिथ्यात्वमोहनीय के अर्द्धशुद्ध कर्मदलिकों का उदय होने पर यह तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान प्राप्त होता है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। उसके पूर्ण होते ही आत्मा के पूर्व परिणामानुसार सम्यक्त्वमोहनीय के शुद्ध या अशुद्ध कर्मदलिकों में से किसी एक का उदय होता है और तदनुसार जीव क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि बन जाता है। साधक को जब औपशमिक सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है तब आत्मा पूर्ण प्रशान्त बनती है। परिणामों की यह प्रशान्तता चिरस्थायी नहीं होती है। जीवात्मा को या तो अर्द्धशुद्ध पुंज या अशुद्ध पुंज का उदय होता है। अर्धशुद्ध कर्मपुंज का उदय होने पर आत्मा सम्यक् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और अशुद्ध पुंज का उदय होने पर सास्वादन गुणस्थान को प्राप्त करती है और वहाँ से पतित होकर मिथ्यात्व दशा को उपलब्ध करती है। इस गुणस्थान में जीव की मृत्यु नहीं होती है।७४ मिश्र गुणस्थानवाले जीव को देशसंयम या सकल संयम तथा आयुष्यकर्म का बन्ध भी नहीं होता है। इस गुणस्थान से जीव या तो प्रथम या चौथे गुणस्थान में ही जाता है। यह मिश्र गुणस्थानवी जीव बहिरात्मा का ही सूचक है।
४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की वह अवस्था है, जिसमें जीव को यथार्थता का बोध या सत्य का दर्शन होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवात्मा सत्य को सत्य रूप में और असत्य को असत्यरूप में जानता है। उसका दृष्टिकोण तो सम्यक् या यथार्थ होता है, किन्तु उसका आचरण सम्यक् नहीं
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गुणस्थान क्रमारोह १६ ।
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