________________
त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ
उपलब्धि से होती है और वह जिन (सर्वज्ञ) अवस्था में पूर्ण होती है । स्थूलदृष्टि की प्राप्ति से लेकर सर्वज्ञदशा तक मोक्षाभिमुखता के दस वर्गीकरण इस प्रकार किए गए हैं । जिसमें पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर विभाग में परिणाम की विशुद्धि सविशेष होती है । परिणाम की विशुद्धि जितनी होगी, कर्मनिर्जरा भी उतनी ही विशेष होगी । प्रथम चरण में जितनी कर्मविशुद्धि होती है, उसकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अवस्था में परिणाम विशुद्धि की विशेषता के कारण कर्मविशुद्धि (कर्मनिर्जरा) भी असंख्यातगुनी बढ़ती जाती है। इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते अन्तिम चरण में सर्वज्ञ अवस्था में निर्जरा ( कर्मविशुद्धि) का प्रमाण सबसे अधिक हो जाता है । आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं में सबसे कम कर्मविशुद्धि ( कर्मनिर्जरा) सम्यग्दृष्टि की और सबसे अधिक सर्वज्ञ परमात्मा या जिन अवस्था में होती है । २
६.३ आध्यात्मिक विकास के सोपान गुणस्थान, परिभाषा एवं स्वरूप
जैन दार्शनिकों ने आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं पर गम्भीरता से विचार किया है। उन्होंने दुःख से मुक्ति पाने के लिए मोक्षमार्ग का निरूपण किया है। मोक्षमार्ग की यात्रा में जिन सोपानों का आरोहण किया जाता है, उन्हें गुणस्थान की संज्ञा दी गयी है। आध्यात्मिक विशुद्धि के विभिन्न स्तरों को सूचित करने के लिए जैनदर्शन में गुणस्थान की अवधारणा उपलब्ध होती है । व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का मूल्यांकन इसी अवधारणा के आधार पर होता है। आचार्य नेमिचन्द्र गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा ३ के पूर्वार्द्ध में गुणस्थान की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि 'संखेओ ओधांत्ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभावा । ५३ अर्थात मोह और योग के निमित्त से जीव के श्रद्धा और चारित्र गुण की होनेवाली तारतम्यरूप अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं ।
५२ 'सम्यग्दृष्टि श्रावक विरतानन्तवियोजक दर्शनमोह - क्षपकोपशमकोपशान्त । मोहक्षपक क्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ।। ४७ ।। '
५३ गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) ३/८ ।
Jain Education International
३७६
For Private & Personal Use Only
- तत्त्वार्थसूत्र अ. ६ ।
www.jainelibrary.org