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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
(कसैला) होता है। इसकी गन्ध सड़ी हुई लाश की दुर्गन्ध जैसी होती है। इसका स्पर्श कम खुरदरा होता है। ___कापोतलेश्यावाले जीवों के भावों में यद्यपि कृष्ण एवं नीललेश्या की अपेक्षा अशुभता कम होती है, किन्तु वे कुटिल तो होते ही हैं।३६ स्वयं की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करना उनका नशा होता है। ऐसे जीवों के अन्य भाव होते हैं - दूसरों के समक्ष अपनी प्रशंसा के पुल बांधते रहना, पाप भीरूता न होना, मृत्यु समीप होने पर भय होना इत्यादि। कापोतलेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक तीन सागरोपम है। यह भी अशुभ लेश्या है। यह लेश्या दुर्गति में ले जानेवाली है।३७ कापोतलेश्या को पशु-पक्षी रूप तिर्यंचगति के बन्ध का कारण बताया गया है।
४. तेजोलेश्या (पीतलेश्या) :
इस लेश्या को पीतलेश्या भी कहते हैं। पंचसंग्रह में तेजोलेश्या के लक्षण के सम्बन्ध में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने कर्तव्य-अकर्तव्य को जानता हो, सभी में समदर्शी हो, दया और दान में संलग्न हो, मृदुस्वभावी और ज्ञानी हो तथा दानशीलता, सत्यवादिता, मित्रता, दयालुता, सहिष्णुता, स्वकार्य-दक्षता, श्रेय-अश्रेय का विवेक, नम्रता, निष्कपटता, कार्य-अकार्य का यथार्थ ज्ञानवाला, कौनसा करने या कौनसा बोलने योग्य है, पढ़ने योग्य क्या है और क्या नहीं है, इसके विवेकवाला, ऊर्जा का सदुपयोग करने वाले आदि गुणों से युक्त हो; वह तेजोलेश्यावाला होता है। उसमें पूर्णतः विवेक होता है। साधन-प्रसाधन उपलब्ध होने पर भी वह संयमी होता है। इस लेश्यावाले का मन्दकषाय होता है। तेजोलेश्यावाला व्यक्ति शक्तिसम्पन्न तो होता है, किन्तु साथ-साथ अहंकारी भी होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार इसे तेजोलेश्या
३५ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/६ । ३६ वही ३४/२५-२६ । ३७ वही ३४/३६-५६ । २८ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/२७-२८ ।
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