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त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ
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द्रव्यलेश्या का कारण वर्ण नामकर्म का उदय होना है, जबकि भाव लेश्या हमारी मनोभावना है। द्रव्यलेश्या के छः भेद होते हैं। जिनका निर्देश आगम में कृष्णादि छः रंगों द्वारा किया गया है। कृष्णलेश्या भौंरे के रंग के समान काली है। नीललेश्या-नीलमणि के रंग के समान या आकाश के रंग जैसी है। इसी प्रकार कापोतलेश्या कबूतर की ग्रीवा के समान, पीतलेश्या सुवर्ण के समान, पदमलेश्या कमल के वर्ण के समान और शुक्ल लेश्या कांस के फूल के समान श्वेत वर्ण वाली होती है। जीव की यह द्रव्यलेश्या नारक एवं देवों पर्यन्त एकसी रहती है। द्रव्यलेश्या आत्मा का बाहरी सार है, जिसका आधार पौद्गलिक है।
२. भावलेश्या : __ भावलेश्या आत्मा का अध्यवसाय या अन्तःकरण की वृत्ति है। कषाय से अनुरंजित मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को पूज्यपाद आदि आचार्यों ने भावलेश्या कहा है।' भावलेश्या स्वयं जीव का परिणाम है। प्रज्ञापनासूत्र में भावलेश्या की अपेक्षा से जीव के दस परिणामों में लेश्या को भी गिना गया है। चूंकि भावलेश्या जीव है, अतः जीव की सभी विशेषताएँ उसमें होना स्वाभाविक है। अपने स्वभाव के अनुसार भावलेश्या वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श से रहित है। वह अरूपी है, इसलिए सर्वथा भारमुक्त है। जैनदर्शन में इसे अगुरूलघु नाम से भी कहा गया है। पं. सुखलालजी के शब्दों में भावलेश्या आत्मा का मनोभाव विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर एवं तीव्रतम और मन्द, मन्दतर और मन्दतम आदि अनेक भेद होने से लेश्या (मनोभाव) वस्तुतः अनेक प्रकार की है, तथापि संक्षेप में छः भेद करके आगम में उसका वर्णन किया गया है। उत्तराध्ययनसत्र में लेश्याओं के स्वरूप का निर्वचन विविध पक्षों के आधार पर विस्तृत रूप से भी हुआ है।२ भावलेश्या के परिणमन का आधार भावों की पवित्रता और अपवित्रता है। जब भाव पवित्र होते हैं तब प्राणी कृष्णलेश्या
२१ (क) सवार्थसिद्धि, २/६;
(ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) ५३६। २२ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/३ ।
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