________________
परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
३५५
वे अव्याबाध सुख के स्वामी हैं।
जैनदर्शन में स्वरूप की दृष्टि से सभी सिद्ध आत्माएँ एक समान होती हैं, किन्तु सिद्धावस्था में प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता एवं वैयक्तिक सत्ता बनी रहती है। इस अपेक्षा से सिद्ध परमात्मा अक्षय या अनन्त अस्तित्व वाले भी कहे जाते हैं। . आचारांगसूत्र में सिद्धों के स्वरूप का वर्णन निम्न प्रकार से हुआ है :
अभावात्मक दृष्टिकोण : सिद्धावस्था में समस्त कर्मों का क्षय होने से मुक्तात्मा में समस्त कर्मजन्य उपाधियों का भी अभाव होता है। अतः मुक्तात्मा न दीर्घ है, न हृस्व है, न वृत्ताकार है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिमण्डल संस्थान वाला है। वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्ण वाला भी नहीं हैं। वह सुगन्ध और दुर्गन्ध वाला भी नहीं है। न तीक्ष्ण, कटुक, खट्टा, मीठा एवं अम्ल रस वाला है। उसमें गुरू, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रूक्ष, शीत एवं उष्णादि स्पर्श-गुणों का भी अभाव है। वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक है।
अनिर्वचीय दृष्टिकोण : आचारांगसूत्र में सिद्धों के अनिर्वचनीय स्वरूप का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किया गया है। समस्त स्वर वहाँ से लौट आते हैं अर्थात् ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का वह विषय नहीं है। वाणी उसका निर्वचन करने में कदापि समर्थ नहीं हैं। वहाँ वाणी मूक हो जाती है। तर्क की वहाँ तक पहुंच नहीं है। बुद्धि उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे समझाया नहीं जा सकता। वह अनुपम है, अरूपी है और सत्तावान है। उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है, जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचारांगसूत्र उन्हें अनिर्वचनीय कहकर
१८८ (क) 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४२२-२३ ।
___-डॉ. सागरमल जैन । (ख) आचारांगसूत्र १/५/६/१७१ (तुलना कीजिये- तैतरीय २/६, मुण्डक ३/१/८) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org