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________________ परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार ३५३ है। उसमें किसी सीमा तक नियतिवाद का तत्त्व छिपा हुआ है; क्योंकि वह प्रभु-इच्छा को सर्वोपरि मानता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दू, बौद्ध और जैन परम्पराओं में परमात्मा की अवधारणा उपस्थित होते हुए भी सैद्धान्तिक और व्यवहारिक दृष्टि से उनमें कुछ मूलभूत अन्तर है। ५.६ सिद्धों का स्वरूप जैनदर्शन में जीवन का परम साध्य सिद्धत्व को प्राप्त करना है। जब आत्मा सर्व बहिर्भावों का परित्याग करके अन्तरात्मा भावपूर्वक परमात्मदशा को उपलब्ध कर लेती है, तो वह सिद्ध या मुक्त कहलाती है। जब साधक अपने चरम साध्य की सिद्धि कर लेता है, तब उसकी आत्मा परमात्मा या सिद्धस्वरूप को प्राप्त कर लेती है। सिद्धावस्था समस्तकों के क्षय का परिणाम है; जहाँ सहज ही आत्मा के मूल गुणों का प्रकटन हो जाता है।७६ जिनके अष्टकर्म क्षय हो गए हों, जो सर्व दोषों से मुक्त हो गए हों, जो सर्व गुणों से सम्पन्न हों, ऐसी सभी आत्माएँ सिद्ध परमात्मा की कोटि में आती हैं।८० जिस प्रकार बीज के जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही कर्मबीज के दग्ध होने पर जन्म, जरा, मृत्यु का अभाव हो जाता है। जीव, अजीव आदि नवतत्वों में मोक्ष अन्तिम तत्व है। मोक्ष तत्व जीव का चरम और परम लक्ष्य है। जिस आत्मा ने अपने समस्त कर्मों को क्षय कर अव्याबाध सुख को प्राप्त कर लिया है और कर्मबन्धन से मुक्ति हो गई है, जिन्होंने केवलज्ञान की सम्पदा को उपलब्ध कर ली है; जिनके जन्म-मृत्यु रूप महान् दुःखों के चक्र की गति रूक गई; जिन्होंने सदा सर्वदा के लिये मुक्तावस्था अर्थात् सत्-चित्-आनन्दमय शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि कर ली है'२ वे सिद्ध कहे जाते हैं। जब वासना का समग्रतः क्षय हो जाता है, अनात्मा में १७६ 'सचित्र णमोकर महामंत्र' परिशिष्ट पृ. १८, १६। -सम्पादक श्रीचन्द सुराणा, आगरा। पंच परमेष्ठि नमस्कार महामंत्र याने जैन धर्मनुं स्वरूप पृ. ४१ । धर्मश्रद्धा पृ. ८८ । पच्चक्खाण क्यों और कैसे? पृ. ११ । १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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