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१३. मद; १७. जन्म; और
तीर्थंकर बनने की योग्यता : तीर्थंकर पद की उपलब्धि हेतु जीव को पूर्व जन्मों में विशिष्ट साधना करनी अनिवार्य होती है । जैनदर्शन में इस हेतु जिन विशिष्ट साधनाओं को आवश्यक माना गया है उनकी संख्या को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतभेद है । दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर तीर्थंकर नामकर्म के उपार्जन हेतु निम्न १६ बातों की साधना को अनिवार्य माना गया है७१ : १. दर्शनविशुद्धि; २. विनयसम्पन्नता; ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग; ५. अभीक्ष्णसंवेग;
१७१
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
१५. विस्मय; १६. निद्रा;
१४. रति; १८. उद्वेग (अरति) ।
७. यथाशक्ति तप; ८. संघ - साधु समाधिकरण; ६. वैयावृत्त्यकरण; १०- १३. चतुःभक्ति अरिहन्त, आचार्य, बहुश्रुत और शास्त्र; १४. आवश्यकापरिहाणि; १५. मोक्षमार्ग प्रभावना; और १६. प्रवचनवात्सल्य
८.
६.
श्वेताम्बर परम्परा में ज्ञाताधर्मकथा के आधार पर तीर्थंकर परमात्मा के नामकर्म के उपार्जन हेतु निम्न २० बोलों की साधना को अनिवार्य माना गया है१७२ :
१-७. अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, गुरू, स्थविर, बहुश्रुत एवं तपस्वी इन सातों के प्रति वात्सल्य भाव रखना;
३. शीलव्रतानतिचार; ६. यथाशक्ति त्याग;
अनवरत ज्ञानाभ्यास करना;
जीवादि पदार्थों के प्रति यथार्थ श्रद्धारूप शुद्ध सम्यक्त्व का होना;
१०. गुरुजनों का आदर करना;
११. प्रायश्चित एवं प्रतिक्रमण द्वारा अपने अपराधों की क्षमायाचना
तत्त्वार्थसूत्र, ६ / २३, पृ. १६२ । १७२ ज्ञाताधर्मकथा १/८/१८ ।
करना;
१२. अहिंसादि महाव्रतों का अतिचार रहित योग्य रीति से पालन
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करना;
१४.
१३. पापों की उपेक्षा करते हुए वैराग्यभाव धारण करना; बाह्य एवं आभ्यन्तर तप करना; १५. यथाशक्ति त्यागवृत्ति को अपनाना; १६. साधुजनों की सेवा करना;
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