SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा नहीं मनाये जाते ।१५६ तीर्थंकर परमात्मा के पंचकल्याणक निम्न रूप से हैं : ३४० १. गर्भकल्याणक (च्यवनकल्याणक); २. जन्मकल्याणक; ३. दीक्षाकल्याणक (प्रव्रज्या कल्याणक); ४. कैवल्यकल्याणक; और ५. निर्वाणकल्याणक । १. गर्भकल्याणक ( च्यवनकल्याणक ) : जब तीर्थंकर परमात्मा का माता के गर्भ में अवतरण (च्यवन) होता है तब तीर्थंकर की माता श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार १४ स्वप्न (दिगम्बर परम्परा के अनुसार १६ ) देखती हैं । देवता देवी, मनुष्यादि मिलकर उनका च्यवन-कल्याण महोत्सव मनाते हैं । तीर्थंकर देवलोक या नरक से ही च्युत होकर मनुष्य भव में आते हैं । च्यवन के पूर्व गर्भ में एवं जन्म के समय तीर्थंकर परमात्मा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान से युक्त होते हैं । वे उत्तम कुल में जन्म लेते हैं । जन्मकल्याणक : जैन परम्परा की अपेक्षा से जिस समय तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है, उस समय स्वर्गलोक से सुर- सुरेन्द्र पृथ्वीतल पर आकर तीर्थंकर प्रभु का जन्म कल्याणक महोत्सव मनाते हैं । तीर्थंकर परमात्मा का जब जन्म होता है, तब जन्म के प्रभाव से क्षण भर के लिये सर्वलोक में उद्योत हो जाता है । स्थानांगसूत्र में लोक में उद्योत के चार कारणों का उल्लेख निम्नरूप से उपलब्ध होता है : .१६० १. जिनेन्द्रदेव के जन्म पर; २. जिनेन्द्रदेव के प्रव्रज्या ग्रहण के समय पर; ३. जिनेन्द्रदेव के केवलज्ञान के अवसर पर; और ४. जिनेन्द्रदेव के निर्वाण के अवसर पर । १६१ शीलांकाचार्य के अनुसार यह उद्योत मात्र क्षणभर के लिए होता है । क्षणभर के लिये नरक के जीवों को भी अपूर्व सुख की उपलब्धि होती है। तीर्थंकर के अतिरिक्त अन्य किसी २. १५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १ पृष्ठ १४० भाग २ पृष्ठ १५७ ! १६० १६१ उद्धृत 'अरिहन्त' पृ. १३१ । (क) आचारांगसूत्र १५/७३३ । (ख) आचारांगसूत्र ( मूल, अनुवाद, विवेचन ) पृ. ३६२ । (ग) कल्पसूत्र १७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only - डॉ. दिव्यप्रभाश्रीजी । - मधुकरमुनि । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy