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वचनातिशय :
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जैनागमों में ३५ वचनातिशयों के उल्लेख हैं । ५ संस्कृत टीकाकारों ने भी अपनी टीका में वचन के ३५ गुणों का उल्लेख किया है । ये ३५ वचनातिशय निम्न हैं :
१. संस्कारत्व : वचनों का व्याकरण सम्मत होना;
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
२. उदरत्व : वाणी का योजन प्रमाणभूमि में स्पष्ट सुनाई देना; ३. उपचारोपत्व : वचनों का ग्रामीणता से रहित होना;
४. गम्भीरशब्दत्व : मेघ जैसी गम्भीरवाणी;
५. अनुनादित्व : प्रत्येक शब्द का यथार्थ उच्चारण से युक्त होना; ६. दक्षिणत्व : वचनों का सरलता से युक्त होना;
७. उपनीतरागत्व : यथोचित राग-रागिणी से युक्त होना अथवा श्रवण करने वाला प्रत्येक प्राणी ऐसा जाने की प्रभु मुझे ही कहते हैं;
८. महार्थत्व : वचनों में अर्थ- गाम्भीर्य होना;
६. अव्याहत पौर्वापयत्व : पूर्वा पर विरोध रहित होना; १०. शिष्टत्व : महापुरुषों के योग्य शिष्टता से युक्त वचन;
११. असंन्दिग्धत्व : कथन का सन्देह रहित निश्चित अर्थ का प्रतिपादक होना;
१२. अपहृतान्योत्तरत्व : दूषण रहित अर्थ का साहित्य;
१३. हृदयग्राहित्व : श्रोताओं को कठिन से कठिन विषय भी सरलता से समझ में आ जाये, ऐसी वाणी; १४. देशकालव्ययीतत्व : देशकाल के अनुकूल वचन होना; १५. तत्वानुरूपत्व : विवक्षित वस्तु के स्वरूप के अनुरूप वचन होना;
१६. अप्रकीर्ण प्रसृतत्व : प्रयोजन सहित होना;
१७. अन्यानय प्रगृहीतत्व : परस्पर अपेक्षा रखने वाले पदों से युक्त होना;
१८. अभिजातत्व : वक्ता की कुलीनता और शालीनता का सूचक होना;
१६. अतिस्निग्धमधुरत्व : वचन का अत्यन्त मधुरता से युक्त होना; २०. अपरमर्मबेधित्व : दूसरों का मर्म भेदन न हो ऐसी चातुर्यपूर्ण
वाणी;
१५८ ‘पणतीसं सच्चवयणाइसेसां पण्णत्ता'
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- समवायांगसूत्र समवाय ३५ ।
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