________________
३२८
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
परमात्मा का ध्यान कर अर्थात तु परमात्मपद'३७ को प्राप्त कर।" आत्मानुभूति के द्वारा आनन्दमय शुद्ध निरंजन परमात्मा को प्राप्त करने के लिए कहा गया है।
आनन्दघनजी ने श्री पार्श्व जिन-स्तवन में परमात्मा के विभिन्न गुणवाचक नामों का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि वे परमात्मा शान्त, सुधारस के समुद्र के समान हैं। उन्हें भवसागर में सेतु के समान भी कहा गया है, क्योंकि उसके सहारे ही प्राणी संसार-समुद्र से पार होते हैं। वे सात प्रकार के महामदों से रहित हैं। मन, वचन और कर्म से सदैव सावधान और अप्रमत्त हैं। उनके अनेक नाम हैं, यथा : शिव, शंकर, जगदीश्वर, चिदानन्द, भगवान, जिन, अर्हत, तीर्थंकर, अरूपी, निरंजन, जगवत्सल, सभी प्राणियों के आश्रयस्थल, अभयदान के दाता, वीतराग, निर्विकल्प, रति-अरति-भय-शोक आदि से रहित; निद्रा, तन्द्रा और दुर्दशा से
अबाधित; परम पुरुष, परमात्मा, परमेश्वर, परमेष्टि, परमदेव, विश्वम्भर, ऋषिकेश, जगन्नाथ, अघहर, अघमोचन आदि। उपर्युक्त समस्त नाम वस्तुतः उनके गुणों को प्रकट करने के लिये ही उन्हें दिये गए हैं।३८
५.२.१२ देवचन्द्रजी के अनुसार परमात्मा का स्वरूप
देवचन्द्रजी परमात्मा के स्वरूप को व्याख्यायित करते हुए ऋषभजिन स्तवन में लिखते हैं कि परमात्मा शुद्ध-बुद्ध, निरंजन, निराकार हैं। वे राग-द्वेष रूपी कर्म-शत्रुओं से रहित हैं। शुद्ध-आत्मा में परमात्मरूप ज्योति प्रकट होती है। वे परमात्मा अव्याबाध, अनन्त, अनश्वर और सुखों में लीन हैं।२८ देवचन्द्रजी परमात्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए सुमतिजिन स्तवन में कहते हैं कि परमात्मा स्वगुण और स्वपर्याय में ही रमण करते हैं। फिर भी उनमें भोग्य और भोगी - ऐसे द्वेत का अभाव है, क्योंकि स्वगुण और स्वपर्याय का आत्मा से अभाव रहा हुआ है। अतः
१३७ आनन्दघन ग्रन्थावली (सुमतिजिन स्तवन गाथा ३) । १३८ आनन्दघन ग्रन्थावली (सुपार्श्वजिन स्तवन गाथा १)। १३६ ऋषभजिन स्तवन १/३-४ ।
-आनन्दघन चौबीसी । -आनन्दघन चौबीसी ।
-देवचन्द्रजी ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org