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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
नष्ट होता है, वैसे ही केवलज्ञानरूपी सूर्य उदय होने से अज्ञान रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है। वे परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कहलाते हैं। पूनः वे देह में स्थित आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करते हुए लिखते हैं कि परमात्मा इसी देह में स्थित है।०६ अमितगति लिखते हैं कि जिसने कर्मग्रन्थीरूप दुर्भेद पर्वत का ध्यानरूपी तीक्ष्ण वज्र से छेदन कर दिया है, ऐसी परमात्मपद को प्राप्त आत्मा उसी प्रकार अनन्त सुख को प्राप्त होती है, जिस प्रकार रोग से पीड़ित व्यक्ति औषधि से रोग के दूर हो जाने पर यथेष्ट आनन्द को प्राप्त होता है। उनके इस कथन का तात्पर्य यह है कि यह आत्मा कर्मरूपी ग्रन्थी का भेदन करने पर परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर अनन्तसुख में लीन होती है।" ऐसी शुद्धात्मा केवलज्ञान रूप चक्षु से अतीन्द्रिय पदार्थों को साक्षात जानकर तथा अष्ट प्रतिहार्यों से युक्त होकर अपनी अमोघ देशना शक्ति से भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में नियोजित करती है।१२ केवलज्ञानी आत्मा के ज्ञान में किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होने से वह सभी पदार्थों को बिना बाधा के जानती है और इसलिये उसे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भी कहा गया है। आगे वे सिद्धात्मा का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं कि सर्वज्ञ परमात्मा वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र आदि चार अघाती कर्मों को भी शुक्लध्यान रूपी कुठार से एक साथ छेदकर मुक्ति को प्राप्त होते
-वही ।
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१०८ 'चैतन्यमात्मनो रूपं तच्च ज्ञानमयं विदुः ।
प्रतिबन्धक-सामर्थ्यान्न स्वकार्ये प्रवर्तते ।। १० ।' १०६ 'ज्ञानी ज्ञेये भवत्यज्ञो नासति प्रतिबन्धके ।
प्रतिबन्धं विना वह्निर्न दाह्येऽदाहकः कदा ।। ११ ।।' ११० (क) 'न मोह प्रभृति-च्छेदः शुद्धात्माध्यानतो विना ।
कुलिशेन विना येन भूधरो भिद्यते न हि ।। ४ ।।' (ख) 'विभिन्ने सति दुर्भेदकर्म-ग्रन्थि-महीधरे।
तीक्ष्णेन ध्यान वज्रेण भूरि-संक्लेश-कारिणि ।। ५ ।।' १११ 'आनंदो जायतेऽत्यन्तं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः ।
औषधेनेव सव्याधेाधेरभिभवे कृते ।। ६ ।।' ११२ (क) 'साक्षादतीन्द्रियानर्थान् दृष्टवा केवलचक्षुषा ।
प्रकृष्ट-पुण्य-सामर्थ्यात् प्रातिहार्यसमन्वितः ।। ७ ।।' (ख) 'अवन्ध्य-देशनः श्रीमान् यथाभव्य-नियोगतः ।।
महात्मा केवली कश्चिद् देशनाया प्रवर्तते ।। ८ ।।'
-वही ।
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