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________________ ३१४ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा पूर्व इस बात पर अधिक बल दिया है कि यह आत्मा ही परमात्मा है। वे लिखते हैं कि अनन्तगणों का समूह यह आत्मा संसाररूपी वन में कर्मरूपी शत्रुओं के द्वारा घिर गया है। मेरी आत्मा ही परमात्मा है, परम ज्योति स्वरूप है, वह जगत् में ज्येष्ठ और महान् है। मैं और परमात्मा दोनों ही ज्ञान नेत्र वाले हैं। इसीलिये आत्मा उस परमात्मस्वरूप की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करती है। आगे वे कहते हैं कि परमात्मा और मुझ में मात्र यही भेद है कि अनन्तचतुष्टय मुझमें शक्तिरूप से विद्यमान है और परमात्मा में वह अभिव्यक्त है। जितना भेद शक्ति और अभिव्यक्ति में है उतना ही भेद मुझ और परमात्मा में है। तत्वतः आत्मा ही परमात्मा है। उस आत्मा में परमात्मस्वरूप का प्रकटन कैसे हो, इसका मुख्य उपाय आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि में ध्यान है। वे लिखते हैं कि यह आत्मा एकत्व वितर्क-अविचार नामक शुक्लध्यान से घातीकर्म का नाश करके आत्मलाभ को प्राप्त करती हैं और केवलज्ञान और -ज्ञानार्णव सर्ग १ । -वही सर्ग २ । -वही । -ज्ञानार्णव सर्ग । ६३ (क) 'अनित्याः कामार्थाः क्षणरुचिचलं जीवितमिदं । विमृश्योच्चैः स्वार्थे क इह सुकृति मुह्यति जनः ।। ४६ ।।' (ख) ये जाता रिपवः पूर्व जन्मन्य स्मिन्विधेर्वशात । त एव तव वर्तन्ते बान्धवा बद्धसौहृदः ।। १६ ।।' रिपुत्वेन समापन्नाः प्राक्तनास्तेऽत्र जन्मनि । बान्धवाः क्रोधरुद्धाक्षा दृश्यन्ते हन्तुमुद्यताः ।। २० ।।' 'अयमात्मा महामोहकलंकी येन शुद्धयति । तदेव स्वहितं धाम तच्च ज्योतिः परं मतम् ।। ३६ ।।' 'अज्ञातस्वस्वरुपेण परमात्मा न बुध्यते । आत्मैव प्राग्विनिश्चेयो विज्ञातुं पुरुषं परम् ।। १ ।।' (ख) 'आत्मतत्त्वानभिज्ञस्य न स्यादात्मन्यवस्थितिः । मुह्यत्यन्तः पृथक्कर्तुं स्वरुपं देहदेहिनोः ।। २ ।।' (ग) 'तयोर्भेदापरिज्ञानानात्मलाभः प्रजायते । तदभावात्स्वविज्ञानसूतिः स्वप्नेऽपि दुर्घटा ।। ३ ।।' (घ) 'अतः प्रागेव निश्चेयः सम्यगात्मा मुमुक्षुभिः । अशेषपरपर्यायकल्पनाजालवर्जितः ॥ ४ ।।' -ज्ञानार्णव सर्ग ३२ । -वही । -वही । -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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