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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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जानती है; तब तक वह अज्ञानजन्य संकल्प-विकल्पों से दग्ध होर्त रहती है। किन्तु जैसे ही आत्मा अपने ज्ञानमय शुद्धस्वरूप क अनुभव करती है, वह मोहजन्य संकल्प-विकल्पों से ऊपर उठकर परमात्मपद को प्राप्त हो जाती है। मुनि रामसिंह कहते हैं कि जे नित्य, निरामय, ज्ञानमय, परमानन्द स्वभावी आत्मा है; वर्ह परमात्मा है। जो इस आत्मतत्व को जान लेता है उसको फिर अन्य कोई भान नहीं रहता अर्थात् वह परमात्मस्वरूप ही हो जाता है। जैनदर्शन प्रत्येक शुद्ध-बुद्ध आत्मा को ही परमात्मा मानता है क्योंकि आत्माएँ अनन्त हैं; परमात्मा भी अनन्त हैं। इसी तत्व के लक्षित करते हुए वे कहते हैं कि जिसने एक जिनदेव को जान लिया, उसने अनन्त जिनदेवों को जान लिया; क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार सभी जिन स्वरूपतः एक ही हैं। उनमें लक्षण भेद नहीं है। इसीलिये मुनि रामसिंह कहते हैं कि जिसने एक जिनदेव को जान लिया उसने सभी (जिनदेवों) को जान लिया। आत्मा का परमात्मा से अभेद स्पष्ट करते हुए मुनि रामसिंह कहते हैं कि आत्मा केवलज्ञानमय है। जो इस ज्ञानमय आत्मा में निवास करता है; वह पापकर्मों से लिप्त नहीं होता।२ वह मुक्त ही है। जो केवलज्ञान से युक्त इस शरीर में स्फुरायमान हो रहा है वही परमात्मा है। इस प्रकार मुनि रामसिंह केवल ज्ञानमय आत्मा को ही परमात्मा के रूप में प्रस्तुत करते हैं।६३
मुनि रामसिंह परमात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अनन्तदर्शन-ज्ञानमय निरंजन परमात्मा आत्मा से अनन्य (अभिन्न) है। वह अन्य नहीं है।
-वही।
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७६ अण्णु तुहारउ णाणमउ लक्खिउ जाम ण भाउ ।
संकप्प-वियप्प अणाणमउ दड्ढउ चित्तु वराउ ।। ५७ ॥' ८० णिच्चु णिरामउ णाणमउ परमाणंदंसहाउ ।
अप्पा बुज्झिउ जेण परू तासु ण अण्णु हि भाउ ।। ५८ ।।' 'अम्हहिं जाणिउ एकु जिणु जाणिउ देउ अणंतु।
णवरि सु मोहें मोहियउ अच्छइ दूरि भमंतु ।। ५६ ।। ८२ 'अप्पा केवलणाणमउ हियडइ णिवसइ जासु । ___ तिहुवणि अच्छउ मोक्कलउ पावु ण लग्गइ तासु ।। ६० ।।'
'चिंतइ जंपइ कुणइ णवि जो मुणि बंधणहेउ । केवलणाण फुरंततणु सो परमप्पउ देउ ।। ६१ ॥'
-वही ।
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-वही ।
-वही ।
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