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________________ २७२ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा है।८७ मुनि सदैव ही मृषावाद का त्याग करता है। वह सावधानीपूर्वक हितकारी एवं सत्य वचन ही बोलता है। ३. अस्तेय (सर्वअदत्तादानविरमण) महाव्रत यह अस्तेय महाव्रत श्रमण की तीसरी भूमिका है। 'सव्वाओ अदिन्ताणाओ वेरमणं' अर्थात् सर्वथा अदत्तादान का त्याग करना अस्तेय महाव्रत है। इस अस्तेय महाव्रत का पालन श्रमण को मन, वचन और काया तथा कृत-कारित एवं अनुमोदन की नवकोटियों सहित करना चाहिये। वस्त्र, भोजन, शय्या, औषध, निवास आदि स्वामी के देने पर ही श्रमण को स्वीकार करना चाहिये। उनकी आज्ञा के बिना स्वीकार नहीं करना चाहिये। जैनदर्शन में इस चौर्यकर्म को भी हिंसा कहा गया है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में बताया है कि यह अदत्तादान (चोरी) है। भय, सन्ताप और मरणादि पातकों को पैदा करता है।८ दशवैकालिकसूत्र में इस महाव्रत की विस्तृत जानकारी उपलब्ध होती है। उसमें कहा गया है कि अचित्त या सचित्त, छोटी या बड़ी - चाहे दाँत साफ करने का तिनका भी क्यों न हो, फिर भी उसे स्वयं न ले। उनका स्वामी दे तभी स्वीकार करे। इस महाव्रत का तीन योग और तीन करण से परिपालन करने के लिए आचारांगसूत्र में इसकी निम्न पाँच भावनाएँ उपलब्ध १. विचारपूर्वक वस्तु या स्थान की याचना - श्रमण विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही वस्तु एवं स्थान आदि की याचना करे; २. गुरू की आज्ञा से याचित आहारादि वस्तुओं का उपभोग भी गुरू को दिखाकर उनकी आज्ञा से करे; ३. श्रमण स्वयं के लिए निश्चित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे; ४. श्रमण को जितनी आवश्यकता हो उतनी मात्रा का परिमाण निश्चित करके याचना करे; ५. अपने सहयोगी श्रमणों के लिए भी विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही याचना करे। १९७ १८८ उत्तराध्ययनसूत्र २५/२४ । प्रश्नव्याकरणसूत्र ३ । आचारांगसूत्र द्वितीय श्रुतस्कण्ध पृ. १४३७-३८ । १८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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