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________________ २७० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा २४-२६. तीन गुप्ति; २७. सहनशीलता और २८. संलेखना। श्वेताम्बर परम्परा में आन्तरिक विशुद्धि पर अधिक बल दिया २. श्रमण के पंचमहाव्रत श्रमण के पंचमहाव्रत निम्न हैं : १. अहिंसा; २. सत्य; ४. ब्रह्मचर्य और ५. अपरिग्रह । ३. अस्तेय; १. अहिंसा (सर्वप्राणातिपातविरमण) महाव्रत जैन श्रमण का अहिंसा प्रथम महाव्रत है। इस महाव्रत की चर्चा स्थानांगसूत्र में भी उपलब्ध है। 'सव्वाओ पाणाइवायो वेरमणं' अर्थात् हिंसा से पूर्णतः विरत होना है। उत्तराध्ययनसूत्र में अहिंसा महाव्रत का इस प्रकार विवेचन मिलता है - मन, वचन और काया के त्रिविध योग के द्वारा तथा कृत, कारित एवं अनुमोदित रूप से त्रस एवं स्थावर जीवों को पीड़ा या कष्ट नहीं पहुँचाना अहिंसा महाव्रत है।८२ मन से किसी भी जीव को पीड़ा पहुँचाने का चिन्तन या किसी के कहने पर उसका समर्थन करना भी हिंसा है। दशवैकालिकसूत्र में भी बताया गया है कि भिक्षु जगत् में जितने भी प्राणी हैं, उनकी जाने या अनजाने में भी हिंसा न करता है, न करवाता है और न उसकी अनुमोदना करता है।८३ श्रमण को आरम्भी, उद्योगी, विरोधी और संकल्पी - इन चारों ही हिंसा का त्याग होता है। श्रमण पूर्णरूप से हिंसा से बचने हेतु प्रत्येक कार्य सजगतापूर्वक करता है, जिससे किसी प्रकार की हिंसा १६२ स्थानांगसूत्र ४/१३१ (अंगसुत्ताणि लाडनूं खण्ड ३ पृ. २८५) । उत्तराध्ययनसूत्र ८/१० । दशवैकालिकसूत्र ६/१० । १८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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