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________________ २६८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा मुनि हिंसा, झूठ, असत्य, मैथुन और परिग्रह - इन पाँच पाप प्रवृत्तियों से पूर्णतः विरक्त रहता है। इनके अतिरिक्त वह निम्न पाँच समितियों का भी पालन करता है : १. ईर्यासमिति; २. भाषासमिति; ३. एषणासमिति; ४. आदान निक्षेपसमिति; और ५. उच्चारप्रनवन समिति। साथ ही उसे निम्न तीन गुप्तियों का पालन करना होता है : १. मनोगुप्ति; २. वचनगुप्ति; ३. कायगुप्ति। १. मुनि का स्वरूप एवं लक्षण जैनपरम्परा को श्रमणपरम्परा भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें श्रमणजीवन को प्रधान माना जाता है। बृहद्कल्पसूत्र में बताया गया है कि प्रथम प्रत्येक आगन्तुक को यतिधर्म का बोध कराना चाहिये। यदि वह उसका पालन करने में असमर्थ हो तो उसे गृहस्थधर्म की प्रेरणा देनी चाहिये।७६ बौद्धपरम्परा में भी श्रमण परम्परा स्वीकार की गई है। उसमें भी श्रमणजीवन को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। वैदिक परम्परा में भी जीवन का अन्तिम साध्य सन्यास ही माना गया है। गीता सन्यासमार्ग और गृहस्थजीवन के मध्य समन्वय करती है। जैनदर्शन के अनुसार श्रमणजीवन का उद्देश्य पापपूर्ण या हिंसक प्रवृत्तियों से बचना एवं साथ ही राग-द्वेषात्मक प्रवृत्तियों से विरक्त होना है। जैनपरम्परा के अनुसार श्रमण जीवन का सार विरति है। प्राकृत में श्रमण को समण कहते हैं। प्राकृत 'समण' शब्द के निम्न तीन रूप बनते हैं : १. श्रमण; २. समन; और ३. शमन। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि : १. श्रमण शब्द 'श्रम' धातु से बना है। इसका अर्थ है - परिश्रम का आम विकास या प्रयत्न करना अर्थात् जो व्यक्ति अपने आत्म-विकास के लिए परिश्रम करता है, वह श्रमण है। १७६ (क) बृहद्कल्पसूत्र ११३६ । (ख)सुत्तनिपात १२/१४-१५ । (ग) गीता ५/२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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