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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
११. पौषधोपवासव्रत
पौषधोपवास शब्द का अर्थ अपने आप के समीप रहना अर्थात् स्वस्वरूप में स्थित रहना है।६३ श्रावक अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वकाल में चारों प्रकार के आहार का त्याग करके पौषध करता है। वह उसमें उपवास के साथ-साथ ही पापमय प्रवृत्तियों का त्याग भी करता है।६४ पौषधोपवास के पाँच अतिचार निम्न हैं :
१. अप्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित शय्या संस्तारक; २. अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित शय्या संस्तारक; ३. अप्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित उच्चार प्रसवण भूमि; ४. अप्रमार्जित- दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रसवण भूमि का उपयोग करना; ५. पौषध का अनुपालन नहीं करना।
१२. अतिथिसंविभागवत ___ अतिथि वह होता है जिसके आने की तिथि या समय निश्चित नहीं होता। ऐसे अतिथि का अर्थ सामान्यतः साधु किया जाता है। किन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका - इन चारों को भी अतिथि कहा गया है।६५ संविभाग अर्थात् श्रद्धाभावना से भावविभोर होकर अहोभावपूर्वक अत्यन्त सम्मान से अपने अधिकार की वस्तुओं में से अतिथि का समुचित विभाग करना - उसे अपेक्षित वस्तु का दान देकर प्रतिलाभित करना है। यह श्रावक का १२वाँ अतिथिसंविभागवत कहलाता है। इसके निम्न पाँच अतिचार हैं :
१. सचित्त निक्षेपण; २. सचित्त पिधान; ३. कालातिक्र ४. परव्योपदेश; और ५. मत्सरिता।
बहिरात्मा से मध्यम अन्तरात्मा की ओर गतिशील होने के लिए ये बारह व्रत बन्धन नहीं, अपितु आत्मोत्कर्ष एवं जीवन विकास के लिए अनुपम साधन के रूप में उपयोगी हैं।
१६३ वही पृ. २६७ । १६४
उपासकदशांगसूत्र १/४१ (लाडनूं ४०६) । १६५ अभिधानराजेन्द्रकोष भाग ७ पृ. ८१२ ।
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