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________________ अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार २५६ ६. दिग्परिमाणव्रत इस व्रत में श्रावक दसों दिशाओं में व्यवसाय एवं भोगोपभोग के निमित्त गमनागमन की सीमा का परिमाण करता हैं।५२ यह श्रावक का प्रथम गुणव्रत होता है। दिग्परिमाणव्रत में दिशाओं की मर्यादा को निश्चित करना होता है। इसके पाँच अतिचार निम्न हैं: १. ऊर्ध्वदिशा के परिमाण का अतिक्रमण; २. अधोदिशा के परिमाण का अतिक्रमण; ३. तिर्यक् (मध्य) दिशा के परिणाम का अतिक्रमण; ४. क्षेत्र (दिशा) दिशा के परिणाम का अतिक्रमण; और ५. स्मृति भंग - निर्धारित सीमा की विस्मृति। ७. उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत ___इसमें भोग और उपभोग में आनेवाली वस्तुओं का परिमाण कर श्रावक को उनका यथाशक्ति त्याग करना होता है। अभिधानराजेन्द्रकोश५३ में भगवतीसूत्र के आधार पर उपभोग का अर्थ बार-बार उपयोग में आने वाली सामग्री किया गया है। आवश्यकसूत्र५४ और धर्मसंग्रह में भी यही अर्थ उपलब्ध होता है। योगशास्त्र५६ एवं रत्नकरण्डक श्रावकाचार में भोग और उपभोग शब्द प्रयुक्त हुआ है। इस व्रत में २२ अभक्ष्य, ३२ अनन्तकाय तथा १५ कर्मादान का त्याग करना होता है। सातवें व्रत के पाँच अतिचार : १. सचित आहार - मर्यादा से अतिरिक्त सचित आहार करना; २. सचित प्रतिबद्ध - सचित-अचित ऐसी मिश्र वस्तु का आहार करना; ३. अपक्वाहार - बिना पका हुआ आहार करना; ४. दुष्पक्वाहार - पूरी तरह नहीं पका हुआ आहार करना; और १५२ योगशास्त्र ३/१ । अभिधानराजेन्द्रकोष, द्वितीय भाग पृ. ८६६ । उद्धृत 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' पृ. ४२० । धर्मसंग्रह भाग ३३० । योगशास्त्र ५/३। रत्नकरण्डकश्रावकाचार ३/३७ । - देवेन्द्रमुनि शास्त्री। १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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