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________________ अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार २४३ और परिजनों से मोह को हटाने का प्रयास करती है। वह यह मानती है कि ये सब छाया के समान हैं, ये प्रति क्षण घटते बढ़ते रहते हैं - इनका कोई भरोसा नहीं है। इनसे नेह लगाने से कभी सुख या शान्ति की प्राप्ति नहीं होती। वह यह सोचती है कि सगे सम्बन्धियों से मेरा सम्बन्ध नहीं है। ये सभी मतलब के साथी हैं। यह शरीर भी जड़ है और तू चैतन्य है। इससे पृथक् है। इसलिए आत्महित का चिन्तन करते हुए राग-द्वेष के धागों को तोड़कर मुझे अपना आत्मबल प्रकट करना ही है। तभी अव्याबाध या अक्षयसुख की उपलब्धि हो सकती है।४ अन्तरात्मा अज्ञानी जीव की तरह इन्द्रादि उच्च पद की अभिलाषा नहीं करती। वह तो सदैव समता रस में झूलती रहती है। वह यह सोचती है कि यदि हंसी में सुख मानें तो हंसी में तकरार खड़ी होने की सम्भावना रहती है। यदि विद्या में सुख मानूं तो विद्या में विवाद का निवास होता है। यदि शरीर में सुख मानूं तो जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। यदि शरीर की शुद्धि में सुख मानूं तो शरीर-शुद्धि में ग्लानि का वास है। यदि सुन्दरता में सुख मानें तो देह क्षीण होती रहती है। यदि भोगों में सुख मानूं तो वे रोगों के कारण हैं। यदि इष्ट संयोग में सुख मानूं तो वे वियोग के कारण हैं। इसलिए अन्तरात्मा को इन सभी में दुःख एवं अशान्ति का आभास होता है। उसका ११२ -वही । -वही । ११४ 'चेतनजी तुम जागि विलोकहु, लागि नहे कहा मायाके ताई । आए कहींसौ कहीं तुम जाहुगे, माया रमेगी जहाँकी तहाई ।। माया तुम्हारी न जाति न पांति न, वंसकी वेलि न अंसकी झांई । दासी कियै विनुलातनि मारत, ऐसी अनीति न कीजै गुसांई ।। ७ ।।' 'माया छाया एकहै, घटे बढ़े छिन मांहि । इन्हकी संगति जे लगै, तिन्हहि कहूं सुख नांहि ।। ८ ।।' 'लोकनिसौं कछु जातौ न तेरौ न, तोसौं कछु इह लोककौ नातौ । ए तौ रहै रमि स्वारथके रस, तु परमारथके रस मातौ ।। ये तनसौ तनमै तनसे जड़, चेतन तू तिनसौं नित हातौ । होहु सुखी अपनौ बल के फेरिकै, राग अवरोधको तांतौ ।। ६ ।' ' 'जे दुरबुद्धि जीव, ते उतंग पदवी चहें । जे समरसी सदीव, तिनकौ कछू न चाहिये ।। १० ।।' -वही । -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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