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________________ २३२ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा कोई प्रयोजन नहीं होता है अर्थात् उसका चित्त आत्मानुभूति में लग गया है। उसे अन्य पदार्थों की इच्छा या आकाँक्षा नहीं होती। ऐसी अन्तरात्मा निज शुद्धात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी का ध्यान नहीं करती। वस्तुतः परमात्मस्वरूप का ध्यान निज शुद्धात्मा का ही ध्यान कहा जाता है और वही परमात्मस्वरूप की उपलब्धि कराता बहिरात्मा को अन्तरात्मा बनने के लिए प्रेरित करते हुए मुनिरामसिंह कहते हैं - "तू समस्त विकल्पों को समाप्त कर अपने चित्त को अपने स्वस्वभाव में स्थित कर। वहीं तुझे आत्मिक सुख प्राप्त होगा और उसके द्वारा संसार से पार हो जायेगा।" आगे वे पुनः कहते हैं कि मन को परमात्मा में केन्द्रित कर विषय-कषायों का त्याग करो। इस प्रकार ही तुम दुःखों को तिलांजलि देकर उन्हें समाप्त कर सकोगे। प्रकारान्तर से मुनिरामसिंह यह बताते हैं कि जो विषय-कषायों का त्यागकर और समस्त विकल्पजाल को तोड़कर अपने परमात्मस्वरूप में चित्त को निवेशित करता है, वही परमात्मा है और वही परमपद को प्राप्त करने में सक्षम होता है। आगे वे पुनः लिखते हैं कि तुमने अपना सिर तो मुँडा लिया अर्थात् मुनिपद को धारण कर लिया, किन्तु जब तक चित्त को मुण्डित नहीं किया, तब तक उस सिर को मुण्डित करने का कोई लाभ नहीं। जो मन को मुण्डित कर लेता है, वही संसार का खण्डन कर सकता है। यहाँ मुनिरामसिंह ने अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह बताया है कि वस्तुतः अन्तरात्मा वही है -वही। - वही । 'केवलु मलपरिवज्जियउ जहिं सो ठाइ अणाइ । तस उरि सवु जगु संचरइ परइ ण कोइ वि जाइ ।। ६० ।' 'सव्वहंयहिं छहरसहिं पंचहिं रूवहिं चित्तु । जासु ण रंजिउ भुवणयलि सो जोइय करि मित्तु ।। १०२ ।।' 'तोडिवि सयल वियप्पडा अप्पहं मणु वि थरेहि । सोक्खु णिरंतरू तहिं लहहि लहु संसारू तरेहि ।। १३४ ।।' 'अरि जिय जिणवरि मणु ठवहि विसयकसाय चएहि । सिद्ध महापुरि पइसरहि दुक्खहं पाणिउ देहि ।। १३५ ।।' -वही । -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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