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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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उनका कथन है कि जो आत्मस्वरूप में निवास करता है, वह परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। जिसका मन निर्मल आत्मस्वभाव में निवास नहीं करता है, उसके लिए शास्त्र, पुराण, तप और चारित्र का पालन, ये सभी मोक्ष के साधन नहीं हो सकते। योगीन्दुदेव का कथन है कि वस्तुतः आत्मा ही अपने शुद्ध स्वरूप में आराधन करने योग्य है। जब तक साधक अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में निवास नहीं करता, तब तक वह बाह्य साधनों के द्वारा परमात्मपद को प्राप्त नहीं कर सकता। वास्तव में दष्टि का अन्तर्मुखी होना ही साधना का मुख्य लक्ष्य है, क्योंकि वे कहते हैं कि जो आत्मस्वभाव में प्रतिष्ठित है, उसे आत्मा में प्रतिबिम्बित होने वाले लोकालोक के स्वरूप का शीघ्र ही बोध हो जाता है। इसलिए ध्येयतत्त्व तो आत्मा ही है। जिस आत्मा को जानने से आत्मा और समस्त पर-पदार्थों का ज्ञान हो जाता है, तू उसी आत्मा का ध्यान कर। आगे वे कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञानवान आत्मा को ही सम्यग्ज्ञान के द्वारा जब तक नहीं जानता, तब तक वह ज्ञानी होने से भी परमात्मपद को कैसे प्राप्त कर सकेगा।६८ इस प्रकार योगीन्दुदेव के अनुसार आत्माभिमुख होना ही अन्तरात्मा का स्वरूप है और इसी के माध्यम से वह परमात्मपद को प्राप्त कर
-परमात्मप्रकाश २ ।
-वही
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-वही।
'अप्पा णिय-मणि णिम्मलउ णियमें वसइ ण जासु । सत्य-पुराण तव-चरणु मुक्खु वि करहिं कि तासु ।। ६८ ।।' (क) 'जोइय अप॑ जाणिएण जगु जाणियउ हवइ । ___ अप्पहँ केरइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ ।। ६६ ।।' (ख) 'अप्प-सहावि परिट्ठियह एहउ होइ विसेसु । ___ दीसइ अप्प-सहावि लहु लोयालोउ असेसु ।। १०० ।।' (क) 'अप्पु पयासइ अप्पु परू जिम अंबरि रवि-राउ । __ जोइय एत्थु म भंति करि एहउ वत्थु-सहाउ ।। १०१ ।।' (ख) 'तारायणु जलि बिंबियउ णिम्मलि दीसइ जेम । ___ अप्पए णिम्मलि बिंबियउ लोयालोउ वि तेम ।। १०२ ।।' (ग) 'अप्पु वि परू वि वियाणइ 5 अप्पें मुणिएण ।
सो णिय-अप्पा जाणि तुहुँ जोइय णाण-बलेण ।। १०३ ।।' (घ) 'णाणु पयासहि परमु महु किं अण्ण बहुएण ।
जेण णियप्पा जाणियइ सामिय एक्क खणेण ।। १०४ ।।' (च) 'अप्पा णाणु मुणेहि तुहुँ जो जाणइ अप्पाणु ।
जीव-पएसहिं तितिडउ गाणे गयण-पवाणु ।। १०५ ।।'
-वही ।
-वही ।
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-वही ।
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