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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
अन्तरात्मा (साधक आत्मा) : जैनदर्शन में साधना का मुख्य लक्ष्य भेदविज्ञान माना गया है। इस भेदविज्ञान की प्रक्रिया क्या है, इसे स्पष्ट करते हुए योगीन्दुदेव परमात्मप्रकाश में लिखते हैं कि पाँचों इन्द्रियाँ, मन और सकल विभावरूप परिणति कर्म - जनित है । इसलिए आत्मा अन्य है और इन्द्रियाँ, मन और विभावजन्य परिणमन अर्थात् राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया आदि आत्मा से भिन्न हैं । पुनः चतुर्गतियों के दुःख भी अन्य हैं और आत्मा अन्य है। ये सभी सांसारिक सुख - दुःख कर्मजनित ही हैं। आत्मा इनकी द्रष्टा है । लेकिन निश्चय से वह इनसे भिन्न है। यही नहीं बन्धन और मोक्ष भी कर्मों की अपेक्षा से कहे गये हैं । अतः आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव में बन्धन और मोक्ष से भी परे है, ऐसा निश्चय नय से जानना चाहिये ।" आगे इसी भेदविज्ञान को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि आत्मा आत्मा है । वह देहादि पर - पदार्थों से भिन्न है और न पर- द्रव्य आत्मरूप होता है । अतः पर-द्रव्य के निमित्त से होने वाली आत्मा की विभाव पर्यायें निश्चयनय से आत्मा की नहीं कही जा सकतीं। निश्चयनय से तो, न आत्मा उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। इसलिए जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग, वर्ण और लिंग ये सब आत्मा के नहीं हैं ।" देह के जन्म, मरण, रोग और वृद्धावस्था को देखकर तू भयभीत मत हो क्योंकि ये सभी पुद्गल के निमित्त से होनेवाली परिणतियाँ हैं । आत्मा तो अजर अमर
३६ 'पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल - विभाव ।
जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगर - ताव ।। ६३ ।। '
'दुक्खु वि सुक्खु वि बहु - विहउ जीवहँ कम्मु जणेइ । अप्पा देक्खर मुणइ पर णिच्छउ एउँ भइ ।। ६४ ।। ' 'बन्धु वि मोक्खु विसयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ ।
अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ बउँ भइ ।। ६५ ।। ' 'अप्पा अप्पु जि परू जि प अप्पा परू जिण होइ ।
जियाइ वि अप्पु णवि णियमें पभणहिं जोइ ।। ६७ ।। ' ४३ 'ण वि उप्पज्ज्इ ण वि मरइ बन्धु ण मोक्खु करेइ ।
जिउ परमत्यें जोइया जिणवरू एउँ भइ ।। ६८ ।। ' 'अत्थि ण उब्भउ जर मरणु रोय वि लिंग वि वण्ण नियमिं अप्पु वियाणि तुहुँ जीवहुँ एक्क वि सण्ण ।। ६६ ।। '
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