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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
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४.२.३ आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी के अनुसार
अन्तरात्मा का स्वरूप आचार्य पूज्यपाद अन्तरात्मा का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ दिखाई देते हैं, वे सब रूपी पदार्थ जड़ हैं, अचेतन हैं, कुछ जानते नहीं और जो जाननेवाली चेतन आत्मा है, वह अरूपी होने से मुझे दिखाई नहीं देती। तब अन्तरात्मा यह चिन्तन करती है कि मैं किसके साथ बातचीत करूं? इस प्रकार अन्तरात्मा अन्तरोन्मुख वृत्ति द्वारा निश्चल होकर स्वसम्वेदन करने का प्रयास करती है।" । वे आगे लिखते हैं कि जिस कर्मोदय के निमित्त से आत्मा में उत्पन्न हुए क्रोधादि अग्राह्यभाव हैं, उन्हें अन्तरात्मा ग्रहण नहीं करती, क्योंकि ज्ञानादि जो गुण आत्मा ने अनादिकाल से ग्रहण किये हैं, उन्हें वह कभी छोड़ नहीं सकती। आचार्य पूज्यपाद अन्तरात्मा को व्याख्यायित करते हुए आगे लिखते हैं कि आत्मा आनन्दस्वरूप है, शुद्ध चेतन्य स्वभाववाली है। अन्तरात्मा उसी शुद्ध चेतन्य आत्मा की अनुभूति करती है। वे अन्तरात्मा के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए आगे कहते हैं कि कोई व्यक्ति भ्रम से टूट को पुरुष समझकर उससे अपने राग-द्वेष, मोहादि की कल्पना करता हुआ सुखी-दुःखी होता है तो यह मात्र भ्रान्ति है - अज्ञानता है। ऐसा अन्तरात्मा चिन्तन करती है।३२ वे आगे लिखते हैं कि अन्तरात्मा स्वसम्वेदन ज्ञान द्वारा स्वयं ही अपने आत्मस्वरूप का अनुभव करती है। अन्तरात्मा अन्तर की गहराई से चिन्तन करती है कि आत्मा न नपुंसक है, न स्त्री है, न पुरुष है, न एक है, न दो है, न बहुत है। वे आत्मा को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि अन्तरात्मा को इतने दिन शुद्ध स्वरूप की पहचान नहीं होने के कारण वह गहरी नींद में सोई हुई थी। अब अन्तरात्मा यथावत्
'यन्मया दृष्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा । जानन दृष्यते रूपं ततः केन् ब्रवीम्यहम् ।। १८ ।। 'पद्ग्राह्यं न गृहणाति, गृहीतं नापि मुंचति । जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।। २० ।।'
-समाधितन्त्र ।
३२
-वही ।
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