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________________ अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार हैं कि जो संसार परिभ्रमण के कारणभूत बाह्य एवं आभ्यन्तर सभी जल्पों अर्थात् विकल्पों को छोड़कर समतारसमय चैतन्यस्वरूप ज्ञानज्योति का अनुभव करता है; ऐसा अन्तरात्मा मोह के क्षीण होने पर अपने परमात्मस्वरूप को अपने अन्तर में देखता है। अग्रिम गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने धर्म और शुक्लध्यान के आधार पर अन्तरात्मा और बहिरात्मा का वर्गीकरण किया है । वे लिखते हैं कि जो श्रमण धर्मध्यान और शुक्लध्यान में परिणत होता है अर्थात् अपनी चित्तवृत्तियों को धर्मध्यान और शुक्लध्यान में निवेशित करता है वह अन्तरात्मा है । इसके विपरीत जो श्रमण इस प्रकार के धर्मध्यान और शुक्लध्यान से रहित है; वह बहिरात्मा है । यहाँ पर आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने स्पष्ट रूप से यह बताया है कि धर्मध्यान और शुक्लध्यान में ही निरत रहना अन्तरात्मा का लक्षण है । इसकी टीका में पद्मप्रभ मलधारीदेव लिखते हैं कि वस्तुतः क्षीणकषाय आत्मा ही अन्तरात्मा है । सोलह कषायों का अभाव होने पर वह दर्शनमोहरूपी शत्रुओं को विजित कर चुकी है। वह सहज चिद्विलास लक्षण से युक्त सदैव ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान में निरत रहती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने नियमसार गाथा क्रमांक १४६, १५० एवं १५१ में अन्तरात्मा के तीन लक्षण प्रतिपादित किये हैं ।" अन्तरात्मा आवश्यक कर्तव्यों का सम्यक्रूप से परिपालन करती है । वह विषयासक्ति से परे होती है । उसके चित्त में विषय विकल्प नहीं जगते हैं और वह सदैव ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान में निरत रहती है अर्थात् उसमें आर्तध्यान और रौद्रध्यान का अभाव होता है । ४.२.२ स्वामी कार्तिकेय के अनुसार अन्तरात्मा का स्वरूप एवं लक्षण स्वामी कार्तिकेय अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जहाँ जन्म है वहाँ मृत्यु है; जहाँ सम्पत्ति है वहाँ विपत्ति है और जहाँ यौवन है वहाँ जरा भी है। इस प्रकार के इष्ट १४ नियमसार गाथा १४६ - १५० । २१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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