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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
१. क्रोध; २. मान; ३. माया; और ४. लोभ । इनमें तरतमता की दृष्टि से प्रत्येक के चार भेद होते हैं :
१. अनन्तानुबन्धी; २. अप्रत्याख्यानी;
३. प्रत्याख्यानी और ४. संज्वलन। इस प्रकार कर्मबन्धन और आत्मा के आध्यात्मिक विकास के अवरोधक तत्त्वों की अपेक्षा से कषायों की संख्या सोलह होती है।
जैनदर्शन में यह माना गया है कि जब तक अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय है तब तक आत्मा मिथ्यादृष्टि और बहिर्मुखी होती है। दूसरे शब्दों में जिस आत्मा में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय है वह बहिरात्मा ही है, क्योंकि उसमें इन चारों कषायों की अभिव्यक्ति तीव्रतम ही होती है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षयोपशम होने पर व्यक्ति सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है
और वह बहिरात्मा से अन्तरात्मा बन जाता है। अन्तरात्मा के जो तीन भेद किये गये हैं, वे भी कषायों के उदय की अपेक्षा से है। जिन आत्माओं में अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय एवं अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय है वह जघन्य अन्तरात्मा है। जिनमें प्रत्याख्यानी कषायों का क्षय एवं संज्ज्वलन कषायों उदय बना हुआ है; वे मध्यम अन्तरात्मा कही जाती हैं और जो आत्माएँ संज्वलन कषाय को भी उपशमित या क्षय करके ११वें और १२वें गुण स्थान को प्राप्त कर लेती हैं, वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा बन जाती हैं। उपरोक्त १६ कषायों का अभाव होने पर आत्मा परमात्मा बन जाती है। इस प्रकार त्रिविध आत्मा की इस चर्चा के प्रसंग में कषायों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कषायों पर विजय प्राप्त करते ही बहिरात्मा अन्तरात्मा बनकर अन्त में परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त करती है।
।। तृतीय अध्याय समाप्त ।।
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