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________________ बहिरात्मा १४२ १४२ उसे तीव्र बहिरात्मा कहा जाता है ।' ३. २. मध्यम बहिरात्मा : सैद्धान्तिक दृष्टि से सास्वादन गुणस्थानवर्ती आत्मा को मध्यम बहिरात्मा कहा गया है । वस्तुतः जिस आत्मा ने सम्यक्त्व का आस्वादन कर लिया है अर्थात् जिसका अपने स्व-स्वरूप से परिचय हुआ है, किन्तु वासनाओं और कषायों के तीव्र आवेगों के कारण उससे विमुख हो गई है; जिसमें वासनाओं पर विवेक का अंकुश लगाने की शक्ति नहीं है और जो पुनः आत्म विस्मृति की दिशा में गतिशील हो गई है वह मध्यम बहिरात्मा है । मन्द बहिरात्मा : सैद्धान्तिक रूप से मिश्र गुणस्थानवर्ती आत्मा को मन्द बहिरात्मा कहा गया है। जिसने एक बार सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लिया है, किन्तु अपनी अस्थिर प्रवृत्ति के कारण उसमें दृढ़तापूर्वक अपने कदम को नहीं जमा पाई है। सत्यासत्य के निर्णय में जो संशयशील बनी हुई है, जिसे कभी आध्यात्मिक अनुभूति का आनन्द अपनी ओर आकर्षित करता है तो कभी भौतिक आकांक्षाएँ अपनी ओर आकर्षित करती हैं । ऐसी दुविधा की स्थिति वाले व्यक्ति को मन्द बहिरात्मा कहा गया है; क्योंकि न तो उसकी सम्यक्त्व में दृढ़ता होती है और न मिथ्यात्व के संस्कार ही दृढ़िभूत होते हैं । यही कारण है कि उसे मन्द बहिरात्मा कहा गया है । ३.४ क्या अविरतसम्यग्दृष्टि बहिरात्मा है ? जैनदर्शन में अविरतसम्यग्दृष्टि उसे कहा जाता है जो सत्य को सत्य समझते हुए भी उसे जीने में अपनी असमर्थता का अनुभव करता है । वह यह जानता है कि क्या हेय है और क्या उपादेय है ? वह पाप को पाप के रूप में और पुण्य को पुण्य के रूप में समझता है । उसे धर्म और अधर्म का सम्यक् विवेक होता है । फिर भी वह धर्म को अपने जीवन में जी नहीं पाता है । दूसरे शब्दों में कहें तो वह धर्म को अपने जीवन में जीने का प्रयास नहीं करता द्रव्यसंग्रह टीका गा. १४ । - Jain Education International २०५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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