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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
वैसे ही आत्मा भिन्न-भिन्न पुद्गलों के संयोग को प्राप्त कर विभावदशा (बाह्यदशा) में परिणत होती है।"१२६ वे आगे कहते हैं कि “संसारी जीव ( बहिरात्मा ) की दशा कोल्हू के बैल के समकक्ष है । वह भूख, प्यास और निर्दयी पुरुषों के प्रहारों को सहता हुआ क्षणमात्र के लिये भी विश्राम नहीं ले पाता है पराधीन होकर चक्कर लगाता रहता है। इस प्रकार बहिर्मुख आत्मा जन्म मरण के चक्र में फँसी रहती है और आत्मा के आनन्द से वंचित रहती है ।"१२७ बनारसीदासजी आगे बहिरात्मा के लक्षणों की चर्चा करते हैं कि 'जिस प्रकार अंजलि का पानी क्रमशः घटता है एवं सूर्य उदित होकर अस्त होता है; वैसे ही प्रतिदिन जिन्दगी घटती रहती है। जैसे करौंत खींचने से काठ कटता है; उसी प्रकार काल शरीर को क्षण-क्षण में क्षीण करता है। फिर भी अज्ञानी (बहिरात्मा ) मोक्षमार्ग की खोज नहीं करता है और देहिक हितों की पूर्ति के लिये अज्ञानवश संसार में भटकता रहता है । बहिरात्मा शरीर आदि पर-वस्तुओं से प्रीति करती है; मन, वचन और काया के योगों में अहंबुद्धि रखती है और सांसारिक विषय भोगों में लिप्त रहती है
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' जैसे महिमंडल मै नदी कौ प्रवाह एक, ताही मैं अनेक भांति नीरकी ढरनि है । पाथरकौ जोर तहां धार की मरोर होति, कांकर की खानि तहां झाग की झरनि है । पौंनकी झकोर तहां चंचल तरंग उठै, भूमि की निचांनि तहां भौरकी परनि 1 तैसें एक आत्मा अनन्त - रस
पुद्गल,
दुहूंके संजोग मै विभाव की भरनि है ।। ३५ ।।' 'पाटी बांधी लोचनिसौं सकुचै दबोचनिसौं, कोचनिके सोचसौं न बेदै खेद तनकौ । धायबो ही धंधा अरू कंथामांहि लग्यौ जोत, बार-बार आर सहै कायर है मनको ।। भूख सह प्यास सहै दुर्जनको त्रास सहै, थिरता न गहै न उसास लहै छनको । पराधीन घूमै जैसौ कोल्हूको कमेरौ बैल, तौसौई स्वभाव या जगत्वासी जनकौ ।। ४२ ।।'
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- समयसार नाटक (बंधद्वार) 1
- समयसार नाटक (बंधद्वार ) ।
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