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________________ बहिरात्मा १६१ आते। फिर भी बहिरात्मा व्यर्थ में ही इनसे प्रीति करती है।६६ यह जगत् इन्द्रजाल सम है। बहिरात्मा के नेत्रों में मोहिनी अंजन के समान यह मोह अपने स्वयं का भान भुलाता है। यह अन्त में धोखा देने वाला है। बहिरात्मा फिर भी बाह्यसुखों के पीछे भागती है।०० यहाँ पर शुभचन्द्राचार्य बहिरात्मा की संसारी अवस्था का चित्रण करते हुए लिखते हैं कि यह बहुरूपिया (बहिरात्मा) संसार में अनेक रूपों को ग्रहण करता है और अनेक रूपों को छोड़ता है। जिस प्रकार नृत्य के रंगमंच पर नृत्य करनेवाला भिन्न-भिन्न स्वांगों को धरता है, उसी प्रकार यह आत्मा निरन्तर भिन्न-भिन्न स्वांग (शरीर) धारण करती रहती है। यही संसार की विडम्बना है फिर भी व्यक्ति (बहिरात्मा) इसमें आसक्त बना रहता है। अतः यह दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है उसका सार्थक उपयोग आवश्यक है। किन्तु यह मूढ़ आत्मा इन अनात्म और क्षणिक पदार्थों में आसक्त बनी हुई राग-द्वेष करती रहती है। आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि व्यक्ति के यह राग-द्वेष रुपी विषय बदलते रहते हैं। उनके शब्दों में पूर्व जन्म में जो तेरे शत्रु थे, वे ही इस जन्म में तेरे अति स्नेही बन्धु बने हुए हैं०२ और जो पूर्व जन्म में तेरे बन्धु और मित्र रहे हुए थे, वे ही आज शत्रुता को प्राप्त होकर क्रोधयुक्त लाल नेत्र कर तेरे विनाश की कामना कर रहे हैं।०३ इस कथन में आचार्य शुभचन्द्र का संकेत यह है कि इस संसार में जो एक समय राग का केन्द्र होता है, वही दूसरे समय द्वेष का केन्द्र बन जाता है और जो द्वेष का केन्द्र होता है वही परिस्थितियों के बदलने के साथ ही राग का केन्द्र बन जाता है। कभी पराये अपने -वही । -वही । ६६ 'यातायातानि कुर्वन्ति ग्रहचन्द्रार्कतारकाः । ऋतवश्च शरीराणि न हि स्वप्नेऽपि देहिनाम् ।। ४३ ।।' 'मोहांजनमिवाक्षाणामिन्द्रजालोपमं जगत् । मुह्यत्यस्मिन्त्रयं लोको न विद्मः केन हेतुना ।। ४५ ।।' 'रुपाण्येकानि गृहन्ति त्यजत्यन्यानि सन्ततम् । था रंगेत्र शैलूषस्तथायं यन्त्रवाहकः ।। ८ ।' 'ये जाता रिपवः पूर्व जन्मन्यस्मिन्विधेर्वशात् । त एव तव वर्तन्ते बान्धवा बद्धसौहृदः ।। १६ ।।' १०३ 'रिपुत्वेन समापत्राः प्राक्तनास्तेऽत्र जन्मनि ।। बान्धवाः क्रोधरुद्धाक्षा दृश्यन्ते हन्तुमुद्यताः ।। २० ।।' -वही । -वही । -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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