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बहिरात्मा
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से कभी भी तृप्ति नहीं होती ।" बहिरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए मुनि रामसिंह कहते हैं कि यह बहिरात्मा राज्य का छत्र पाकर अर्थात् राज्य को प्राप्त करके भी सदा दुःखी रहती है । देहरूप देवालय में निवास करते हुए भी जो महल आदि बनवाता है जिसका चित्त राग के कोलाहल में अथवा छः प्रकार के रसों अथवा पाँच प्रकार के रूपों में आसक्त है, वही बहिरात्मा है। उसे उपदेश देते हुए मुनि रामसिंह कहते हैं कि तू उसे ही अपना मित्र बना, जिसका चित्त सांसारिक भोगों में आसक्त न हो ।
३.२.६ आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में बहिरात्मा का स्वरूप एवं लक्षण
ज्ञानार्णव में द्वादशानुप्रेक्षाओं की चर्चा करते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने बहिरात्मा की जीवन दृष्टि को स्पष्ट किया है। आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि में वस्तुस्वरूप के सम्यग्ज्ञान के अभाव में बहिरात्मा पर-पदार्थों पर ममत्व बुद्धि का आरोपण करती है; संसार के क्षणिक सुखों में आसक्त बनती है और संसार के सांयोगिक सम्बन्धों को ही यथार्थ मान कर उनमें राग-द्वेष करती है । " इस प्रकार आचार्य शुभचन्द्र ने अनात्म में आत्मबुद्धि, दुःख के निमित्तों को ही सुख का साधन मान लेना और अनित्य या क्षणभंगुर विषयों में आसक्ति रखना बहिरात्मा का लक्षण माना है । २ वे लिखते हैं कि अज्ञानी आत्मा द्वारा वस्तुस्वरूप का विचार नं
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'अप्पा मेल्लिवि जग तिलउ जे परदव्वि रमंति ।
अण्णु कि मिच्छादि ट्ठियह मत्थई सिंगई होंति ।। ७१ ।। ७६ 'छत्तु वि पाइ सुगरुडा सयल-काल सन्तावि ।
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णियदेहडइ वसन्तयहं पाहण वाडि वहाइ ।। १३१ ।। ' 'रायवयल्लहिं छहरसहिं पंचहिं रुवहिं चित्तु । जासु ण रंजिउ भुवणयलि सो जोइय करि मित्तु ।। १३३ ।। ' 'आत्मबुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मविभ्रमात् । बहिरात्मा स विज्ञेयो मोह निद्रास्त चेतनः ।। ६ ।।' 'हृषिकार्यसमुत्पन्ने प्रतिक्षण विनश्वरे । सुखे कृत्वा रतिं मूढ विनष्टं भुवनत्रयं ।। ८ ।।'
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- पाहुडदोहा ।
-वही ।
-वही ।
-ज्ञानार्णव सर्ग ३२ (शुद्धोपयोग ) ।
-वही सर्ग २ ( अनित्यभावना ) ।
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