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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
है और शस्त्रादिक से उनका घात करती है। उन्हें काटती है अथवा हाथ-पैर-लाठी से प्रहार करती है। यह हिंसा पाप का मूल है। अतः इसे बहिरात्मा का लक्षण कहा गया है। यह जीव मिथ्यात्व के कारण रागादि भावों में परिणत होकर पहले तो अपने ही शुद्ध स्वभाव का घात करता है - दूसरे जीवों का घात तो हो या न हो, यह तो उनके आयुष्य पर आधारित है, परन्तु जैसे ही उस बहिरात्मा ने भाव से दूसरे जीवों के घात का विचार किया वैसे ही वह आत्मघाती तो हो चुकी है। २ अन्यत्र योगीन्दुदेव ऐसा भी कहते हैं कि जो आत्मा कषाययुक्त है, निर्दयी है, वह पहले तो स्वयं ही अपने शुद्ध स्वभाव का घात करती है - इसलिए आत्मघाती है। आगे योगीन्दुदेव उस बहिरात्मा की क्या गति होती है और उसका संसार परिभ्रमण कैसे बढ़ता है इसका विवेचन करते हुए कहते हैं कि निश्चय से तो मिथ्यात्व एवं विषय-कषाय रूप परिणमन करने से ही वह आत्मघाती होती है और व्यवहार से अन्य जीवों के इन्द्रियबल, आयु, श्वासोछ्वास आदि रूप प्राणों का विनाश करने के कारण वह अन्य जीवों की भी हिंसक होती है। ऐसी आत्मा की नरक गति होती है।३ बहिरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि शुद्धात्मा के अतिरिक्त पाँचों इन्द्रियों के विषयरूप बाह्य पदार्थ नाशवान हैं। फिर भी बहिरात्मा भ्रम से शुद्ध स्वभाव रूप आत्मद्रव्य को छोड़कर उस असार भूसे को कूटने का प्रयास करती है या बाह्य पदार्थों के प्रति रागादि भाव में लीन रहती है अर्थात् विभाव-परिणमन करती रहती है।
परमात्मप्रकाश में योगीन्दुदेव बहिरात्मा के स्वरूप को
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-परमात्मप्रकाश २ ।
-वही।
'मारिवि जीवहँ लक्खड़ा जं जिय पाउ करीसि । पुत्त कलत्तहँ कारण. तं तुहुँ एक्कु सहीसि ।। १२५ ॥" 'मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुं दुक्खु करीसि ।। तं तह पासि अणंत-गुणु अवसइँ जीव लहीसि ।। १२६ ।।' 'जीव वहंतहँ णरय गइ अभय पदाणे सग्गु । बे पह जवला दरिसिया जहिं रूच्चइ तहिं लग्गु ।। १२७ ।।' 'देहहँ उपरि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ ।
देहहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ।। ५१ ।।' ___ 'मूढा सयलु वि कारिमउ भुल्लउ मं तुस कंडि ।।
सिव पहि णिम्मलि करहि रइ घरु परियणु लहु छंडि ।। १२८ ।।'
-वही।
-वही।
-वही ।
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