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________________ बहिरात्मा १७५ प्राप्त करती है।३ इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय की कार्तिकेयानुप्रेक्षा में अनन्तानुबन्धी कषायों से आविष्ट होना ही बहिरात्मा का प्रमुख लक्षण है। क्योंकि जहाँ अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय होता है, वहाँ नियम से ही आत्मा सम्यग्दर्शन से च्युत होकर मिथ्यात्व को ग्रहण करती है।" बोधिदुर्लभ भावना में बताया गया है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है क्योंकि निगोद से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों में सम्यक्त्व को प्राप्त करने की शक्ति ही नहीं होती और जब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती तब तक वह बहिरात्मा ही होता है।'६ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवन को प्राप्त करने के बाद भी यदि व्यक्ति अनन्तानुबन्धी कषायों से आविष्ट है, तो वह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से वंचित ही रहता है। मात्र यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा है कि यदि वह सम्यक्त्व और शील को प्राप्त भी कर ले, तो भी वह अनन्तानुबन्धी तीव्र कषायों के आविष्ट होने पर सम्यक्त्व और शील से पतित हो जाता है। जो भी तीव्र कषायों से आविष्ट है, वह बहिरात्मा ही है। पुनः बहिरात्मा की प्रवृत्तियों को स्पष्ट -वही । 'सम्मत्ते वि य लद्धे, चारित्तं णेव गिण्हदे जीवो । अह कह वि तं पि गिण्हदि, तो पाले, ण सक्केदि ।। २६५ ।।' (क) 'रयणु ब्व जलहि-पडियं मणुयत्तं तं पि होदि अइदुलहं । ___ एवं सुणिच्छइता, मिच्छकसाये य वज्जेह ।।२६७॥' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (अन्यत्वानुप्रेक्षा) । (क) 'अहवा देवो होदि हु, तत्थ वि पावेदि कह व सम्मत्तं । तो तवचरण ण लहदि, देसजमं सील लेसं पि ।। २६८ ।। -वही । (ख) 'मणुवगईए वि तओ, मणुवुगईए महव्वदं सयलं । मणुवगईए झाणं, मणुवगईए वि णिव्वाणं ।।२६६।।' -कातिर्केयानुप्रेक्षा (धर्मानुप्रेक्षा) । 'इय सव्वदुलहदुलहं, दंसण णाणं तहा चरित्तं च । मुणिऊण य संसारे, महायरं कुणह तिण्हं पि ।। ३०१ ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (बोधिदुर्लभ भावना, सहछप्पय)। (क) 'अह णीरोओ होदि हु, तह वि णं पावेइ जीवियं सुइरं । ___ अह चिरकालं जीवदि, तो सीलं णेव पावेइ ।। २६३ ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (बोधिदुर्लभ भावना, सहछप्पय) । (ख)'अह होदि सीलजुत्तो, तह वि ण पावेइ साहुसंसग्गं । अह तं पि कह वि पावदि, सम्मत्तं तह वि अइदुलहं ।। २६४ ।।' -वही । 'जीवो वि हवइ पावं, तिव्वकसायपरिणदो णिच्चं । जीवो वि हवेइ पुण्णं, उवसमभावेण संजुत्तो ।। १६० ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (लोकानुप्रेक्षा)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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