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सम्यक्चारित्र इन रत्नत्रय की साधना में श्रद्धा नहीं होती । "
मोक्षप्राभृत में बहिरात्मा
मोक्षप्राभृत में भी बहिरात्मा के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव लिखते हैं कि जिसका मन बाह्य पदार्थों में प्रस्फुटित हो रहा है अर्थात् जो बाह्य पदार्थों की आकांक्षा और इच्छा रखता है और इन्द्रियरूपी बाह्यदशा में आसक्त होकर जो निजस्वरूप से च्युत हो बाह्य ऐन्द्रिक विषयों में आसक्ति रखता है और उन बाह्य पदार्थों तथा शरीर आदि को अपना समझता है, उसे बहिरात्मा कहा जाता है । वह देहादि पर वस्तुओं में अपनेपन का आरोपण कर अज्ञान के वशीभूत हो स्त्री, पुत्र, परिजन, धन, सम्पत्ति आदि को अपना मानता है और इस प्रकार परद्रव्यों में उसकी आसक्ति या मोह बढ़ता ही जाता है। ऐसा व्यक्ति बहिर्मुख कहा जाता है। वह अपनी मिथ्यादृष्टि के कारण पर को स्व समझने में मिथ्याज्ञान में निरत रहता है और उसी के परिणामस्वरूप शरीरादि को अपना मानता रहता है। ऐसा मिथ्यामति बहिरात्मा उस मिथ्यात्व के परिणामस्वरूप अष्ट दुष्टकर्मों का बन्ध करती हुई संसार में परिभ्रमण करती रहती है।
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आगे आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं : “जब तक मनुष्य को आत्मानुभूति नहीं होती तब तक वह बाह्य विषयों में प्रवृत्त होता रहता है । मात्र यही नहीं कुछ लोग आत्मानुभूति के पश्चात् भी सद्भाव से भ्रष्ट होकर विषयों में मोहित होते हुए चतुर्गतिरूप
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
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(क) 'आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अन्तरंगप्पा | आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा || १४६ ।।' (ख) 'बहिरात्मान्तरात्मेति स्यादन्यसमयो द्विधा । बहिरात्मनयोर्देहकरणाद्युदितात्मधीः ।।'
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( स ) ' अन्तरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा | जप्पे जो ण वट्टइ सो उच्चइ अन्तरंगप्पा ।। १५० ।।' 'अक्खाणि बाहिरप्पा अन्तरअप्पा हु अप्पसंकष्पो । कम्मकलंक विमुक्का परमप्पा भण्णए देवो ।। ५ ।।' 'बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरुवचुओ । णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ ॥ ८ ॥
- नियमसार गाथा १४६ की पद्मप्रभ की संस्कृत टीका ।
- नियमसार ।
- मोक्खपाहु ।
- मोक्खपाहुड ।
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- नियमसार ।
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