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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा कृति में स्पष्ट रूप से त्रिविध आत्मा की अवधारणा का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया हो, किन्तु इसके बन्धद्वार में बहिरात्मा के, साध्यसिद्धिद्वार में अन्तरात्मा के और सर्वविशुद्धि द्वार में परमात्मा के स्वरूप का उल्लेख उपलब्ध होता है । बनारसीदासजी बन्धद्वार में इस प्रकार बताते हैं कि सम्यग्दृष्टि आत्मा (अन्तरात्मा) अपनी अन्तर्दृष्टि से देखती है और मिथ्यादृष्टि (बहिरात्मा) मिथ्यात्व के भ्रम में पड़कर चारों पुरुषार्थों की साधक और आराधक सामग्री पास में रहते हुए भी उन्हें नहीं देखती है । उसे बाहर खोजती फिरती है। अन्तरात्मा आत्मस्वरूप की शुद्धता को प्रकट कर मोक्ष का प्रबल पुरुषार्थ करती हुई, परमात्मदशा को उपलब्ध करती है । बहिरात्मा से आत्मा अन्तरात्मा की ओर गतिशील होती है और अन्तरात्मा से परमात्मदशा की प्राप्ति करने के लिए तत्पर बनती १६२ ७६ बनारसीदासजी ने त्रिविध आत्माओं में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का निर्वचन क्रमशः किस रूप में किया है; इसका आस्वादन उनके ही शब्दों में कीजिये : (१) बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा 'जगत् मैं डोलैं जगवासी नर रूप धरें, प्रेतकेसे दीप किधौं रेतकेसे थूहे हैं । दसैं पट भूषन आडंबरसौ नीके फिरि, फीके छिनमांझ सांझ - अंबर ज्यौ सूहे हैं ।। मोह के अनल दगे माया की मनीसौं पगे, डाभ की अनीसौं लगे ओसकेसे फूहे हैं । धरम की बुझ नांहि उरझे भरमांहि, नाचि नाचि मरि जांहि मरी केसे चूहे हैं ।। ४३ । ।' - समयसार नाटक बंधद्वार । Jain Education International मोह मद पाइ जिनि संसारी विकल कीने, याही अजानुबाहु बिरह विहतु है 1 ऐसौ बंध-वीर विकराल महा जाल सम, ग्यान मंद करै चंद राहु ज्यौं गहतु है ।। ताकौ बल भंजिवेकौं घटमैं प्रगट भयौ, उद्धत उदार जाकौ उद्दिम महतु है । ७६ देखें समयसार नाटक २, ८, १०, ४२, ५२, ५६६०, ८५-८६, १०८ एवं १३५ । For Private & Personal Use Only - बनारसीदास । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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