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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा ६ उपलब्ध होती है। यह कृति गुणभद्र द्वारा रचित है। इसके टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य हैं । इस कृति में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्म अवस्था तक कैसे पहुँचा जा सकता है, आदि प्रश्नों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । आत्मा की बहिर्मुखता ही परमात्म अवस्था तक पहुँचने में बाधक है । वे लिखते हैं कि बहिरात्मा का पुरुषार्थ आत्मा की ओर नहीं होता अपितु उसका लक्ष्य बाह्य संसार की ओर ही होता है । वह आत्मा विषयभोगों में लिप्त होती है । किन्तु अन्तरात्मा को जब सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हो जाती है तब संसार में रहते हुए भी वह निर्लिप्त होकर, संयमी जीवन का परिपालन कर, कर्मों की निर्जरा कर, संवर करती हुई परमात्म अवस्था को प्राप्त होती है । " १६० २.४.८ अमितगति के योगसारप्राभृत में त्रिविध आत्मा जैनपरम्परा के आध्यात्मिक दृष्टिसम्पन्न ग्रन्थों में योगसार नामक ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। योगसार के नाम से चार ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें प्रथम योगीन्दुदेव का योगसार, दूसरा अमितगति का योगसारप्राभृत और तीसरा गुरुदास का योगसारसंग्रह है। चौथा योगसार संस्कृत भाषा में रचित है । किन्तु इसके लेखक अज्ञात हैं । जहाँ तक इन योगसार नामक ग्रन्थों में त्रिविध आत्मा के वर्णन का प्रश्न है योगीन्दुदेव के योगसार में तो स्पष्ट रूप से त्रिविध आत्मा और उनके लक्षणों का वर्णन मिलता है । जहाँ तक अमितगति के योगसारप्राभृत का प्रश्न है उसमें स्पष्ट रूप से कहीं भी त्रिविध ६८ ८ 'अहितविहितप्रीतिः प्रीतं कलत्रमपि स्वयं सकृदपकृत श्रुत्वा सद्यो जहाति जनोऽप्ययम् । स्वहितनिरतः साक्षाद्दोषं समीक्ष्य भवे भवे । विषयविषवद्ग्रासाभ्यासं कथं कुरुते बुधः ।। १६२ ।।' ६६ ‘आत्मन्नात्म विलोपनात्मचरितैरासीर्दुरात्मा चिरं स्वात्मा स्याः सकलात्मनीनचरि तैरात्मीकृतैरात्मनः । आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविद्यात्मकः स्वात्योत्थात्मसुखो निषीदसि लसन्नध्यात्ममध्यात्मना ।। १६३ ।।' देखें आत्मानुशासनम्, पृ. १८४ - ८६ संस्कृत टीका । ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only -आत्मानुशासनम् । -वही । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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