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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थानवर्ती आत्मा ही परमात्मा हैं। परमात्मा के दो प्रकार स्वीकार किये गए हैं - सकल परमात्मा और निकल परमात्मा। बहिरात्मा विकार व विभाव की साधक है और अन्तरात्मा निर्मल स्वस्वभाव की साधक है। परमात्मा पूर्ण निर्मलता के प्रतीक हैं। वे अरिहन्त एवं सिद्ध परमात्मा हैं। वे आगे लिखते हैं कि बहिरात्मा देहादिक में भी भ्रान्ति करती हुई देह को ही आत्मा समझती है। अन्तरात्मा रागादि विकार भाव में अभ्रान्त रहती है तथा परमात्मा सर्वकर्ममल से रहित एवं अत्यन्त निर्मल है। समाधितन्त्र में भी त्रिविध आत्मा की चर्चा विशिष्ट रूप से उपलब्ध होती है। बहिरात्मा अर्थात मूढ़ आत्मा अपने शुद्ध चिदानन्द, ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव की अनुभूति नहीं करती। अन्तरात्मा इन भूलों को भूल मानकर त्याग करती है - आत्मद्रव्य को जानती है। जिस प्रकार प्रत्येक लेण्डीपीपल चौंसठपुटी चरपराहटयुक्त है, उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा में सर्वज्ञता का आनन्द व्याप्त है। वे कहते हैं कि उसकी पूर्णदशा प्रकट होने का नाम ही परमात्मा है।६
२.४.५ योगीन्दुदेव के अनुसार त्रिविध आत्मा
(क) परमात्मप्रकाश में त्रिविध आत्मा
योगीन्दुदेव के परमात्मप्रकाश में भी त्रिविध आत्मा की विस्तृत विवेचना स्पष्ट रूप से उपलब्ध होती है। परमात्मप्रकाश के पांच दोहों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है एवं इन त्रिविध आत्माओं के विभिन्न नाम भी उपलब्ध होते हैं।८ मिथ्यात्व तथा रागादि भावों में आसक्त होनेवाली आत्मा को उन्होंने बहिरात्मा या मूढ़ कहा है; वीतराग,
-समाधितंत्र ।
-समाधितंत्र ।
५५ 'बहिरन्त परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु ।
उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ।। ४ ।।' 'बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तरः । चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽतिनिर्मलः ।। ५ ।।' 'मुदु वियक्खणु बंभु परू अप्पा ति-विहु हवेइ ।
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढ हवेइ ।। १३ ।।' ५८ 'देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ ।
परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।। १४ ।।'
-परमात्मप्रकाश ।
-वही ।
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