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* शुभानुशंसा *
साध्वी श्री प्रियलताश्रीजी का शोध प्रबन्ध जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा' प्रकाशित हो रहा है, यह जानकर प्रसन्नता हुई। साध्वी श्री ने मेरे सान्निध्य और मार्गदर्शन में ही यह शोधप्रबन्ध पूर्ण किया है और जिस पर उन्हें जैन विश्वभारती संस्थान मान्य विश्वविद्यालय लाडनूं से पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की गई थी। किसी लेख के श्रम की सार्थकता इसी में निहित रहती है कि उसका ग्रन्थ प्रकाशित होकर जन-योग्य बने। किसी ग्रन्थ के प्रकाशन का यह उपक्रम इसी हेतु होता है कि लेखक के श्रम को सार्थकता मिले। प्रकाशन की इस शुभ वेला पर मैं साध्वीश्रीजी को बधाई देता हूँ और यह आशा करता हूँ कि उनकी यह कृति जन-जन के आत्म विकास में सहयोगी बने और वे बहिरात्मभाव का त्याग कर अन्तरात्मा की साधना के द्वारा परमात्म पद की प्राप्ति करें। साथ ही साध्वीजी से भी यह अपेक्षा करता हूँ कि वे ज्ञान साधना में तत्पर रहते हुए जिनवाणी के भण्डार को समृद्ध करते हुए, जन कल्याण के साथ-साथ आत्म कल्याण कर परमात्म पद का शीघ्र वरण करें। ज्ञान की सार्थकता स्व पर कल्याण के साथ परमात्म-दशा की प्रप्ति में ही है।
डॉ. सागरमल जैन संस्थापक-निदेशक : प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र)
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- प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
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