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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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जब साधक सत्कायदृष्टि, विचिकित्सा एवं शीलव्रत परामर्श की अवस्था को पार कर लेता है, तब वह स्रोतापन्नभूमि पर आरूढ़ हो जाता है। मिथ्यादृष्टि एवं विचिकित्सा के समाप्त हो जाने पर पतन की सम्भावना नहीं होती और साधक निर्वाण की ओर गतिशील बनकर आध्यात्मिक प्रगति करता है। स्रोतापन्न साधक चार अंगों से सम्पन्न होता है। वे इस प्रकार हैं : (१) बुद्धानुस्मृति : बुद्ध के प्रति निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। (२) धर्मानुस्मृति : धर्म के प्रति निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। (३) संघानुस्मृति : संघ के प्रति निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। (४) शील एवं समाधि की निर्मल भाव से साधना करता है।
स्रोतापन्न अवस्था को उपलब्ध साधक विचार एवं आचार से शुद्ध होता है। इस अवस्था को प्राप्त साधक अधिक से अधिक सात जन्मों में निर्वाण प्राप्त कर ही लेता है। . __ जैनपरम्परा की अपेक्षा से चतुर्थ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक की ये जो अवस्थाएँ है; उसकी तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है। क्योंकि जैन परम्परा के अनुसार साधक इन गुणस्थानों में दर्शनविशुद्धि और चारित्रविशुद्धि करता है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में वासनाओं एवं कषायों का स्थूल रूप से अभाव हो जाता है। फिर भी उनके बीज सूक्ष्म रूप से बने रहते हैं। दूसरे शब्दों में इस गुणस्थान में उदय की अपेक्षा से कषाय की तीनों चौकडियाँ समाप्त हो जाती हैं - मात्र संज्वलनकषाय शेष रहता है। जैनदर्शन के इस कथन के सम्बन्ध में बौद्ध विचारधारा यह कहती है कि स्रोतापन्न अवस्थाओं में वासनाएँ तो समाप्त होती हैं, पर आस्रव शेष रहता है। त्रिविध आत्मा की अपेक्षा से यह स्रोतापन्न अवस्था जघन्य एवं मध्यम
अन्तरात्मा के समान होती है। (२) सकृदागामीभूमि : स्रोतापन्न के आगे का सोपान सकृदागाभूमि
है। इसके अन्तिम चरण में राग, द्वेष एवं आस्रव का क्षय हो जाता है, फिर साधक अनागामीभूमि की ओर अग्रसर हो जाता
२६ (क) विनयपिटक, चुल्लवग्ग ४/४ । (ख) 'जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ४७४ ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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