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औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
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आनन्दमयकोश को आत्मबोध की अवस्था माना है। इनमें अन्नमयकोश और प्राणमयकोश बहिरात्मा के सूचक हैं। मनोमयकोश और विज्ञानमयकोश अन्तरात्मा के सूचक हैं और आनन्दमयकोश परमात्मदशा का सूचक है। इस प्रकार पंचकोशों की यह अवधारणा त्रिविध आत्मा की अवधारणा से पूर्णतः संगति रखती है।
२.१.२ औपनिषदिक चिन्तन में निद्रा, स्वप्न, और
तुरीय अवस्थाएँ जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं के विविध वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं। इसमें आत्मा के द्विविध वर्गीकरण भी अनेक दृष्टियों से किये गये हैं। जैसे संसारी और सिद्ध, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि, विरत और अविरत, प्रमत्त और अप्रमत्त, सकषाय और अकषाय, उपशान्तमोह
और क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली आदि। विरत-अविरत, बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा; इनमें भी मुख्य रूप से प्रमत्त और अप्रमत्त वर्गीकरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह वर्गीकरण प्राचीन जैन आगमों में भी उपलब्ध होता है।
औपनिषदिक चिन्तन में प्रमत्त और अप्रमत्त के समकक्ष जो विवरण उपलब्ध है, उसमें प्रमत्त आत्मा को सुषुप्त और अप्रमत्त आत्मा को जाग्रत कहा गया है। कहीं-कहीं जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति त्रिविध वर्गीकरण और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय ऐसा - चतुर्विध वर्गीकरण भी उपलब्ध होता है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के समरूप गीता और बौद्ध ग्रन्थों में कृष्णपक्षीय और शुक्लपक्षीय - ऐसा द्विविध वर्गीकरण भी मिलता है। एक अन्य अपेक्षा से सुप्त
और जाग्रत भी कहा जाता है। औपनिषदिक चिन्तन में आत्मा की निम्न चार अवस्थाएँ बहुचर्चित हैं :
(१) जाग्रत; (२) स्वप्न; (३) सुषुप्ति; और (४) तुरीय।
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