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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
प्रकार की आत्माएँ आध्यात्मिक गुणों के विकास की दृष्टि से उत्तरोत्तर एक-दूसरे से निर्मलतर हैं। इसमें बहिरात्मा प्रथम अवस्था है। यह आत्मा की संसार में अनुरक्त विभावदशा है।६६ द्वितीय अवस्था अन्तरात्मा की है, यह साधक आत्मा है। यह शुभ से शुद्ध की ओर गतिशील होती है। तृतीय परमात्मअवस्था श्रेष्ठतम, निर्मलतम या विशुद्धतम है।
सर्वप्रथम बहिरात्मा के लक्षण व स्वरूप को समझकर उन्हें त्यागना आवश्यक है। क्योंकि जब तक व्यक्ति अन्तर्मुखी नहीं बनता; तब तक वह परमात्मा नहीं बन सकता। अन्य भारतीय दार्शनिकों ने भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं को स्वीकार किया है।
तैत्तिरीयोपनिषद् में आत्मा की निम्न पाँच अवस्थाएँ मानी गई
हैं :४७०
(१) अन्नमयकोष; (२) प्राणमयकोष; (३) मनोमयकोष;
(४) विज्ञानमयकोष और (५) आनन्दमयकोष। छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार आत्मा के तीन भेद इस प्रकार हैं :४७१
(१) शरीरात्मा; (२) जीवात्मा; और (३) परमात्मा। माण्डुक्योपनिषद् में चार भेद इस प्रकार है :४७२ (१) अन्तःप्रज्ञ; (२) बहिःप्रज्ञ; (३) उभयप्रज्ञ; और (४) अवाच्य। कठोपनिषद् में भी आत्मा के निम्न तीन भेद किये गए हैं :४७३
(१) ज्ञानात्मा; (२) महदात्मा; और (३) शान्तात्मा।
४६६ मोक्षपाहुड ५, ८, ६, १० एवं ११ । ४७० 'एतमन्नमयमात्मानमुपसंक्रम्य। एतं प्राणमयमात्मानमुपसंक्रम्य रातं मनोमयमात्मानमुपसंक्रम्य ___ विज्ञानममात्मानमुपसंक्रम्य एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रम्य ।।'
-ौत्तरीयोपनिषद् भृगुवल्लीत्त;३-१०-६ । ४७१ छान्दोग्य उपनिषद, ३०८, ७-१२ । ४७२ 'नान्तः प्रज्ञं न बहिः प्रज्ञंनोभयतः प्रज्ञं न प्रज्ञानधनं न प्रज्ञानाप्रज्ञम ।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्रास्य-मलक्षण चिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्यय सारं ।।
प्रपंचोपशमं शान्तं शिवं अद्वैतं चतुर्थं मन्यते स आत्मा स विज्ञेयः ॥७॥' -माण्डुक्योपनिषद् । ४७३ ‘यच्छेद्वाङ्मनसी प्र-शस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि ।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ।। ३/१३ ।। -कठोपनिषद् ।
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