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________________ १०८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा (३) धर्म : जैनदर्शन में धर्म की व्याख्या विभिन्न दृष्टिकोणों से की गई है। समता, मध्यस्थता, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र और स्वभाव की आराधना ये धर्मवाचक शब्द है । ४३३ आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार और भावपाहुड आदि ग्रन्थों में चारित्र एवं राग-द्वेष से रहित आत्मा के परिणाम को धर्म बतलाया है । ४३४ दशवैकालिकसूत्र के प्रथम अध्याय में कहा गया है कि अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। ४३५ कर्मास्रव के ६वें अध्याय में कर्मनिर्जरा के हेतुओं की चर्चा करते हुए क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि को धर्म बताया है । धर्म एक व्यापक शब्द है । आचारांगसूत्र' में समभाव की साधना और अहिंसा को धर्म कहा गया है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में धर्म की चार परिभाषाएँ दी गईं हैं : (१) वस्तु का स्वभाव ही धर्म है; ४३६ .४३७ क्षमादि दस सद्गुणों का पालन ही धर्म है; (३) रत्नत्रय की अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और म्यक्चारित्र की आराधना करना ही धर्म है; और (४) जीवों की रक्षा करना धर्म है । ४३८ (४) अनुप्रेक्षा : अनुप्रेक्षाओं से न केवल नवीन कर्मों का आना ही रुकता है बल्कि पुराने संचित कर्मों की निर्जरा भी होती है। वैराग्य भावों की वृद्धि एवं सम्पुष्टि अनुप्रेक्षाओं ४३३ नयचक्र गाथा ३५६-५७ । ४३४ प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति १/७ । ४३५ दशवैकालिकसूत्र १/१ । ४३६ तत्त्वार्थसूत्र ६/६ । ४३७ ४३८ आचारांगसूत्र १/६/५ । (क) 'धम्मो वत्थुसहावो खमादि भावो य दस विहो धम्मो । जीवाणा रक्खणं रयणत्तयं च धम्मो (ख) स्थानांग १० / १४ । (ग) समवायांग १० / १ । (घ) मूलाचार ११ / १५ । (च) तत्त्वार्थसूत्र ६ / १२ । (छ) बारसानुपेक्खा ६८-७० । Jain Education International धम्मो || ४७६ ।। ' - कार्तिकेयानुप्रेक्षा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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