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________________ विषय प्रवेश १०५ स्थानांगसूत्र के अनुसार संवर के आठ भेद इस प्रकार हैं - (१) श्रोत्रेन्द्रिय का संयम; (२) चक्षुरिन्द्रिय का संयम; (३) घ्राणेन्द्रिय का संयम; (४) रसनेन्द्रिय का संयम; (५) स्पर्शनेन्द्रिय का संयम (६) मन का संयम; (७) वचन का संयम; और (८) शरीर का संयम।२१ जैन ग्रन्थों में प्रकारान्तर से संवर के ५७ भेद भी स्वीकार किये गये है। ५ समितियाँ, ३ गुप्तियाँ, १० यतिधर्म, १२ अनुप्रेक्षाएँ, २२ परिषह और सामायिक आदि ५ चारित्र।२२ इन सभी का सम्बन्ध श्रमण जीवन से है। १. संवर : नवीन कर्मबन्ध को रोकने की प्रक्रिया : संवर का कार्य : नवीन कर्मबन्ध को रोकना है और निर्जरा का कार्य पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करना है। जैनदर्शन में कर्मबन्ध विमुक्ति की ये दो विधियाँ प्रतिपादित की गई हैं।४२३ पहली विधि है संवर जिसके द्वारा नवीन कर्मबन्ध को रोका जाता है:२४ और दूसरी विधि है निर्जरा जिसके द्वारा आत्मा से पूर्वबद्ध कर्मों को अपने विपाक के पूर्व ही तपादि के द्वारा अलग किया जाता है। यहाँ पर कर्म से विमुक्ति की इस प्रक्रिया को एक उदाहरण के द्वारा बताते हैं - "यदि तालाब को खाली करना हो तो पहले उन नालों को बन्द करना पड़ता है, जिनके द्वारा पानी तालाब में आता है। उन द्वारों को रोकना ही संवर है। इसके बाद तालाब में रहे हुए पानी को खाली करना या सुखा देना यही निर्जरा है।" इसी प्रकार नवीन कर्मानवों के निरोध और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करने से आत्मा कर्मों से रहित हो जाती है और साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। संवररहित निर्जरा का कोई अर्थ नहीं है। यह स्पष्ट है कि कर्मबन्ध-विच्छेद में संवर और निर्जरा दोनों का ४२१ स्थानांगसूत्र ८/३/५६८ । २२ 'चउदस-चउदस बायालीसा, बासी य हुँति बायाला, सत्तावन्नं बारस, चउ नव भेया कमणेसि ।।२।।' ४२३ भगवतीआराधनाः शिवकोटी गा. १८५४ । ४२४ 'आनवनिरोधः संवरः' -नवतत्त्व प्रकरण । -तत्त्वार्थसूत्र ६/१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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