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विषय प्रवेश
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जैनदर्शन यह स्वीकार करता है कि जब तक जीवन है, तब तक निष्क्रिय नहीं रहा जा सकता। जब तक मानसिक वृत्ति चलती रहेगी, तब तक सहज रूप से कायिक एवं वाचिक क्रियाएँ भी चलती रहेंगी और उस क्रिया के फलस्वरूप कर्मास्रव भी होता रहेगा। किन्तु जो व्यक्ति कषाय से ऊपर उठ जाता है; उस व्यक्ति की क्रियाओं के द्वारा जो आस्रव होता है, उसे जैन परिभाषा में ईर्यापथिक आस्रव कहा गया है। जिस प्रकार धूल का कण रास्ते में चलते हुए सूखे कपड़े पर गिरता है; पर सूखे वस्त्र पर चिपकता नहीं है, पुनः खिर जाता है; उसी प्रकार कषायरहित क्रियाएँ आत्मा में विभाव उत्पन्न नहीं करतीं। उनसे स्थितिबन्ध नहीं होता। किन्तु जो क्रियाएँ कषाय सहित होती हैं, उनसे साम्परायिक आम्नव होता है।
१.६ बन्धन से मुक्ति की ओर
जैनदर्शन ने आत्मा के बन्धन और मुक्ति - इन दोनों पक्षों को स्वीकार किया है। आत्मा के पूर्व संचित कर्मसंस्कार समय-समय पर अपना फल या विपाक प्रदान करते रहते हैं और उसके परिणामस्वरूप मनसा, वाचा, कर्मणा - इन तीनों योगों (प्रवृत्तियों) के द्वारा क्रियारूप व्यापार होता है। इस कारण आत्मा को नवीन कर्मानव एवं कर्मबन्ध होता है। प्रश्न उठता है कि आत्मा की बन्धन से मुक्ति कैसे होती है? जैनदर्शन में आत्मा द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का उपाय संवर एवं निर्जरा को माना गया है। कर्मानंव में आनव के निरोध को संवर कहा गया है। संवर ही मोक्ष का हेतु है। संवर शब्द सम् उपसर्गपूर्वक 'वृ' धातु से बना है। 'वृ' धातु का अर्थ है रोकना या निरोध करना। संवर शब्द का अर्थ है - आत्मा की ओर आते हुए कार्मणवर्गणा के पुद्गलों को रोकना। यह शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के निरोध के द्वारा सम्भव है; अतः इन क्रियाओं का निरोध भी संवर है। संवर को जैन परम्परा में कर्म परमाणुओं के आस्रव को रोकने के अर्थ में और बौद्ध परम्परा में क्रिया के निरोध के अर्थ में स्वीकार किया गया है। संवर का अर्थ संयम भी है। ठाणांगसूत्र में संवर के पाँच
४१४ 'आश्रवनिरोधः संवरः' तत्त्वार्थसूत्र ६/१ ।-पं. सुखलालजी का विवेचन तत्त्वार्थभाष्यमानपाठ ।
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