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________________ ६० अनेक भेदों की चर्चा उपलब्ध होती है । ३४२ (२) क्षायिकभाव : क्षायिकभाव कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है । यह आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था है। ज्ञानावरणादि समस्त कर्मों का सदा के लिए आत्मा से अलग हो जाना ही क्षय कहलाता है । ३४३ जैसे फिटकरी को पानी में घुमाने से कचरा उपशान्त हो जाता है, किन्तु मैल के सर्वथा निकल जाने पर जल नितान्त स्वच्छ हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा से इन अष्टकर्मों की सम्पूर्णतः निवृत्ति हो जाना या कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना क्षायिकभाव कहलाता है । ३४४ कर्मास्रव में क्षायिक भाव के नौ भेद मिलते हैं; वे इस प्रकार हैं . जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा (१) क्षायिकज्ञान; (३) क्षायिकदान; (५) क्षायिकभोग; क्षायिकवीर्य; (E) क्षायिकचारित्र । ये क्षायिकभाव ही मोक्ष के कारण हैं । ये सभी भाव अरिहन्तों एवं सिद्धों में पाये जाते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म का नाश होने पर क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान) उत्पन्न होता है | ३४५ दर्शनावरणीयकर्म के क्षीण होने पर क्षायिकदर्शन (अनन्तदर्शन) उद्भूत होता है । अन्तरायकर्म के पूर्णतः नष्ट होने पर दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पंच क्षायिकभाव आविर्भूत होते हैं । इसी तरह सम्यग्दर्शन का घात करनेवाली सातों कर्म प्रकृतियों के सर्वथा क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्रमोहनीय का सर्वथा क्षय होने पर क्षायिकचारित्र प्रकट होता है। ये अनन्तज्ञानादिक नौ भाव तेरहवें गुणस्थान में ही प्रकाशित हुआ करते हैं । २४६ यह यथार्थ बोध स्थाई होता है । शास्त्रीय भाषा में सादि एवं अनन्त होता है । ३४४ सर्वार्थसिद्धि २/१ । ३४५ तत्त्वार्थसूत्र १०/४ | तत्त्वार्थसूत्र १० / ४ । ३४६ (२) क्षायिकदर्शन; (४) क्षायिकलाभ; (६) क्षायिकउपभोग; क्षायिकसम्यक्त्व; और ३४२ षड्खण्डागम (धवलाटीका) १४/५/६/१७ | ३४३ (क) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) प्र. टीका, गा. ८ पृ. २६; (ख) धवला १/१/१/२७ । (ग) 'खीणम्मि खयियभावो दु ।' Jain Education International - गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. ८१४ । - विस्तृत वर्णन के लिए द्रष्टव्य सर्वार्थसिद्धि आदि टिकाएँ । - विस्तृत वर्णन के लिए दृष्टव्य सर्वार्थसिद्धि आदि टिकाएँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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