________________
८८
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
को देव कहा जाता है। जीव अशुभ कर्मों का त्याग करके एवं शुभकर्मों के आचरण से देवगति को उपलब्ध करता है। देवता उपपाद जन्मवाले एवं वैक्रिय शरीरी होते हैं। उत्तराध्ययनसत्र३३२ और कर्मानव३३३ में देवता के चार भेद मिलते हैं :
(१) १० भवनपति; (२) ८ व्यन्तर;
(३) ५ ज्योतिषी; और (४) २ वैमानिक। इन चार भेदों के अवान्तर भेद पच्चीस होते हैं।३३४
१.७ आत्मा के पंचभाव :
आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र३३५ में आत्मा के पंच-भावों का वर्णन किया है; वे भाव इस प्रकार हैं :
(१) औपशमिक; (२) क्षायिक; (३) क्षायोपशमिक;
(४) औदयिक; और (५) पारिणामिक। सर्वार्थसिद्वि में आचार्य पूज्यपाद के अनुसार ये पंचभाव आत्मा के स्वतत्त्व कहलाते हैं;३३६ क्योंकि ये पंचभाव आत्मा के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं होते हैं। कर्मानव में पण्डित सुखलालजी३३७ कहते हैं कि औपशमिक आदि पंच-भाव आत्मा के स्वभावरूप हैं। किन्तु सांख्य और वेदान्त दर्शन जो आत्मा को कूटस्थ-नित्य मानते हैं, वे आत्मा में परिणमन स्वीकार नहीं करते हैं। वे ज्ञान, सुख-दुःखादि परिणामों को प्रकृति या अविद्या का ही परिणाम मानते हैं। वैशेषिक और नैयायिक ज्ञान आदि को आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं; उसका स्वरूप लक्षण नहीं मानते हैं। बौद्धदर्शन ने आत्मा को एकान्त क्षणिक या परिणामी तथा प्रवाहरूप माना है। जैनदर्शन का कथन है कि जैसे प्राकृतिक जड़-पदार्थों में न कूटस्थ-नित्यता है न एकान्त-क्षणिकता, किन्तु परिणामी नित्यता
३३२ "चिच्चा अधम्मं धम्मिठे, देवेसु उब्वज्जई ।'
-उत्तराध्ययनसूत्र ७/२६ । ३३३ तत्त्वार्थसूत्र ४/१। ३३४ 'दसहा उ भवणवासी, अट्ठहा वणचारिणो ।
पंचविहा जोइसिया, दुविहा वेमाणिया तहा ।। २०५ ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३६ । ३३५ तत्त्वार्थसूत्र २/१ । ३३६ सर्वार्थसिद्धि २/१ । २३० तत्त्वार्थसूत्र विवेचन - पंडित सुखलालजी भाष्यमान्य पाठ पृ. ४६-५० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org