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________________ ८४ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा असंज्ञीजीव : जिन जीवों के मन नहीं होता है, वे असंज्ञी जीव होते हैं। असंज्ञी जीव संज्ञी जीवों की तरह विवेकशक्ति से युक्त नहीं होते हैं। उन्हें कर्त्तव्य-अकर्तव्य का विवेक नहीं होता है। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त तिर्यंचगति वाले जीव असंज्ञी ही होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों एवं मनुष्यों में भी कुछ जीव असंज्ञी भी होते हैं। जैसे- संमूर्छिम मनुष्य। ३. भव्यात्मा की अपेक्षा से संसारीजीवों के भेद भव्यात्मा जिस जीवात्मा में मुक्त होने की शक्ति निहित है, उसे भव्यात्मा कहा है। जैसे अनूकूल साधन मिलने पर भी कुछ मूंग में सीझने की योग्यता होती है और कुछ में नहीं होती है; वैसे ही कुछ जीवात्माओं में सम्यग्दर्शनादि निमित्त मिलने पर समस्त कर्मों को क्षय करके शुद्धात्मस्वरूप अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करने की योग्यता होती है और कुछ में नहीं होती। जिनमें मुक्ति की योग्यता होती है, उन्हें गोम्मटसार१६ एवं ज्ञानार्णव३२० आदि ग्रन्थों में भव्यात्मा कहा गया है। अभव्यात्मा अभव्यात्मा में मुक्त होने की शक्ति नहीं होती है। जैसे कुछ मूंग में अनुकूल साधन मिलने पर भी सीझने की शक्ति नहीं होती है; वैसे ही अभव्यात्मा में मुक्ति की योग्यता नहीं होती और वह संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करती रहती है।३२१ ४. गति की अपेक्षा से संसारीजीव के भेद : गति - जिस कर्म के उदय से जीव एक पर्याय का त्याग कर दूसरे पर्याय को उपलब्ध करता है उसे गति कहते है।३२२ गतियों ३१६ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ५५६ । ३२० ज्ञानार्णव ६/२०, ६/२२ । ३२१ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ५५६-५५७ । ३२२ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. १४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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